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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला करना-हिंसादिकों में प्रवृत्ति करना अविरति है।। कलुषताराग-द्वेष आदिका नाम कषाय है। यह कषाय समलपरिणाम-- मलिन परिणामरूप चारित्रमोह है। उसके दो भेद हैं १-कषाय
और २-नोकषाय अथवा राग और द्वेष । मन, वचन और कायके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें चलनता-हलनचलनरूप क्रियाका होना योग है । इस तरह वैभाविकभावोंके मिथ्यात्व आदि चार ही भेद हैं। __ भावार्थ-वैभाविकभावोंक उक्त चार भेद आचार्य श्रुतमुनिकी परम्पराके अनुसार कहे गये हैं। दूसरे आचार्य 'प्रमाद' को मिलाकर पांच भेद वर्णित करते हैं । किन्तु यहां पं० राजमल्ल जीने जो आचार्य श्रुतमुनिके कथनानुसार चार भेद बतलाये हैं वे प्रमाद और कषायमें अभेद मानकर ही कहे गये मालूम पड़ते हैं; क्योंकि 'प्रमाद' कषायका ही परिणाम है । जैसा कि 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा' [ तत्वार्थ० ६-१३] इस सूत्रके व्याख्यानमें आचार्य पूज्यपादने 'प्रमादःसकषायत्वं' [सर्वार्थसिद्धि ६-१३] कहकर प्रमादका अर्थ सकषायता किया है। अतः प्रमाद और कषायमें अभेद मानकर वैभाविक भावोंके चार भेद और उनमें ही भेद मानकर पांच भेद करने में कोई सिद्धान्त* 'छस्सिंदिएसुऽविरदी छज्जीवे तह य अविरदी चेव'-अास्रवत्रिभं० ४ x ‘मणवयणाण पउत्ती सच्चासच्चुभयअणुभयत्थेसु । तण्णामं होदि तदा तेहिं दु जोगा दु तज्जोगा ||---श्रा० त्रि०७ ओरालं तम्मिस्सं वेगुव्वं तस्स मिस्सयं होदि । श्राहारय तमिस्सं कम्मइयं कायजोगेदे ॥' ग्रा० त्रि०८ * 'मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोहादोऽथ विणणेया ।'
-द्रव्यसंग्रह ३०
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