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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला
प्रज्ञापन-नय और भावि-प्रज्ञापन-नय इन दोनों प्रकार से--अर्थात् उपचार से भी अस्तिकाय नहीं है।
इस प्रकार श्रीअध्यात्मकमलमार्तण्ड नामक अध्यात्मग्रन्थमें द्रव्यविशेषोंका वर्णन करनेवाला तीसरा परिच्छेद समाप्त हुआ।
चतुर्थ परिच्छेद
जीवके वैभाविक भावोंका सामान्यस्वरूप और उनका भावाश्रव तथा भावबंधरूप होनेका निर्देशभावा वैभाविका ये परसमयरताः कर्मजाः प्राणभाजः सर्वाङ्गीणाश्च सर्वे युगपदिति सदावर्तिनो लोकमात्राः। ये लक्ष्याश्चैहिकास्ते स्वयमनुमितितोऽन्येन चानैहिकास्ते प्रत्यक्षज्ञानगम्याः समुदित इति भावस्रवो भावबन्धः ॥१॥ ___ अर्थ-प्राणियों के परद्रव्यमें अपनेपनके अनुरागसे जो कर्मजन्य भाव होते हैं वे वैभाविकभाव-विभाव-परिणाम हैं। और ये सब एक साथ आत्माके समस्त प्रदेशों में मिले हुये रहते हैं। सदा विद्यामान स्वभाव हैं-संसार अवस्था पर्यन्त हमेशा ही बने रहने वाले हैं। लोक-प्रमाण हैं-लोकाकाशके प्रदेशोंके बराबर (असंख्यात) हैं। इन वैभाविकभावोंमें जो ऐहिक-इसपर्याय जन्य
'अणोरप्येकदेशस्य पूर्वोत्तरप्रज्ञापननयापेक्षयोपचारकल्पनया प्रदेश प्रचय उक्तः । कालस्य पुनद्वैधाऽपि प्रदेशप्रचयकल्पना नास्ति हत्यकायत्वम्।'
--सर्वार्थसिद्धि ५-३६
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