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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला भावार्थ--जो पुरातनाचार्य व्यवहारकालको निश्चयकालकी पर्याय कहते हैं, वे अशुद्ध पर्यायकी दृष्टिसे ऐसा प्रतिपादन करते हैं। क्योंकि निश्चयकाल के आश्रित ही समय,घड़ी,दिन आदि व्यवहारकाल होता है। यदि निश्चयकाल न हो तो व्यवहारकाल नहीं हो सकता । अतः इस व्यहारकालको निश्चयकालकी अशुद्ध पर्याय मानने में कोई हानि नहीं है और न कोई विरोध है। पहले जो कालाणुमात्रको निश्चयकालकी पर्याय कहा है, वह शुद्धपर्यायकी दृष्टिसे कहा है अर्थात व्यवहारकाल तो निश्चयकालकी अशुद्ध पर्याय है और कालाणुमात्र शुद्ध पर्याय है।
कालद्रव्यको अस्तिकाय न होने और शेष द्रव्योंको अम्तिकाय होनेका कथनअस्तित्वं स्याच षण्णामपि खलु गुणिनां विद्यमानस्वभावात् । पंचानां देशपिण्डात्समयविरहितानां हि कायत्वमेव ॥ सूक्ष्माणोश्चोपचारात्प्रचयविरहितस्यापि हेतुत्वसत्वात् कायत्वं न प्रदेशप्रचयविरहितत्वाद्धि कालस्य शश्वत् ।।४२।। इति श्रीमदध्यात्म-कमल-मार्तण्डाभिधाने शास्त्रे द्रव्यविशेष
प्रज्ञापकस्तृतीयः परिच्छेदः।। अर्थ-विद्यमानस्वभाव होनेसे छहों द्रव्य 'अस्ति' हैंअस्तित्ववान हैं । और कालद्रव्यको छोड़कर शेष पाँच द्रव्य बहुप्रदेशी होनेसे कायवान् हैं-इस तरह 'अस्ति' स्वरूप तो छहों द्रव्य हैं, किन्तु अस्ति और काय दोनों--अर्थात् अस्तिकाय केवल पाँच ही द्रव्य हैं* कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है।। क्योंकि वह * 'संति जदो तेणेदे अत्थि त्ति भणंति जिणवरा जम्हा ।
काया इव बहुदेसा तम्हा काया य अत्थिकाया य ॥'-द्रव्यसं० २४ * 'कालस्सेगो ण तेण सो कायो'-द्रव्यसं० २५
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