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________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला नामका पदार्थ न हो, तो व्यवहारकाल बन ही नहीं सकता है। अतः परमार्थकाल-कालाणुरूप निश्चयकाल अवश्य ही मानने योग्य है। इस परमार्थकालकी अपने ही गुणोंमें अपने ही गुणोंसे परिणमन करना 'धर्मपर्याय' है। ___ कालद्रव्यकी शुद्ध द्रव्यपर्याय और उसका प्रमाण -- पर्यायो द्रव्यात्मा शुद्धः कालाणुमात्र इति गीतः। सोऽनेहसोऽणवश्वासंख्याता रत्नराशिरिव च पृथक् ॥३६॥ अर्थ-कालाणुमात्रको कालद्रव्यकी शुद्ध द्रव्यपर्याय कहा गया है। वे कालाणु असंख्यात हैं और रत्नोंकी राशिकी तरह पृथक पृथक हैं-अलग अलग हैं* । . ____भावार्थ-इसका खुलासा पहिले होचुका है। विशेष यह कि जो रत्नोंकी राशिका दृष्टान्त दिया गया है वह निश्चयकालद्रव्यको स्पष्टतया पृथक् पृथक सिद्ध करनेके लिये दिया गया है। व्यवहारकालका लक्षणपर्यायः किल जीवपुद्गल भवो यो शुद्धशुद्राह्वयस्तस्यैतचलनात्मकं च गदितं कर्म क्रिया तन्मता । तस्याः स्याच परत्वमेतदपरत्वं मानमेवाखिलं तस्मान्मानविशेषतो हि समयादिर्भाक्तकालः स यः॥४०॥ अर्थ-जीव और पुद्गलसे होनेवाले शुद्ध और अशुद्ध परिणमनोंको पर्याय-परिणाम कहते हैं। इन पर्यायोंमें जो चलनरूप कर्म होता है वह क्रिया है। क्रियासे परत्व-ज्येष्ठत्व और अपरत्व* 'लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ट्रिया हु एक्केक्का । रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंवदव्वाणि ॥'-द्रव्यसं० २२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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