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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
कम से कम और अधिक से अधिक लोकाकाशप्रमाण असंख्यात ही कालाणुओंका मानना आवश्यक एवं सार्थक है ।
निश्चयकालद्रव्यका स्वरूपद्रव्यं कालाणुमात्रं गुणगणकलितं चाश्रितं शुद्धभावस्तच्छुद्धं कालसंज्ञं कथयति जिनपो निश्चयाद्र्व्यनीतेः। द्रव्याणामात्मना सत्परिणमनमिदं वर्तना तत्र हेतुः कालस्यायं च धर्मः स्वगुणपरिणतिधर्मपर्याय एषः ॥३८॥
अर्थ-गुणोंसे सहित और शुद्ध पर्यायोंसे युक्त कालाणुमान द्रव्यको जिनेन्द्रभगवानने द्रव्यार्थिक निश्चयनयसे शुद्ध कालद्रव्य--अर्थात् निश्चयकाल कहा है । द्रव्योंके अपने रूपसे सत्परिणामका नाम वर्तना है। इस वर्तनामें निश्चयकाल कारण होता है-द्रव्योंके अस्तित्वरूप वर्तनमें निश्चयकाल निमित्तकारण होता है। अपने गुणोंमें अपने ही गुणों द्वारा परिणमन करना काल द्रव्यका धर्म है-शुद्ध अर्थक्रिया है और यह उसकी धर्मपर्याय है। ___भावार्थ-निश्चयकालको परमार्थकाल कहते हैं। जैन सिद्धान्तकी यह विशेषता है कि वह द्रव्योंकी पर्याय या क्रियारूप व्यवहारकालके अलावा सूक्ष्म अणुरूप असंख्यात कालद्रव्य भी मानता है। और जिनका मानना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है; क्योंकि व्यवहारकाल द्रव्यनिष्ठ पर्याय या क्रियाविशेवरूपही पड़ता है और जब 'क्रियाविशेष व्यवहार से-उपचारसे काल है वो परमार्थकाल जरूर कोई उससे भिन्न होना चाहिए। क्योंकि बिना परमार्थक उपचार प्रवृत्त नहीं होता। यदि वास्तवमें 'काल' इस अखंडपदका वाच्यार्थ परमार्थतः कोई 'काल'
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