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________________ प्रस्तावना येनांशेन चरित्रं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।।२६६ (२७५) ये दोनों पद्य 'पुरुषार्थसिद्धय पाय' ग्रन्थ के पद्य हैं और 'येनांशेन सुदृष्टिः' नामके उस पद्यके बाद 'उक्तं च' रूपसे ही उद्धृत किये गये हैं जो पंचाध्यायीमें भी नं० ७७४ (७७८) पर उद्धृत है। मालूम होता है ये दोनों पद्य पंचाध्यायीकी प्रतियोंमें छूट गये हैं। अन्यथा, प्रकरणको देखते हुए इनका भी उक्त पद्यके साथमें उद्धृत किया जाना उचित था । इसी तरह पंचाध्यायीमें भी 'यथा प्रज्वलितो वह्निः' और 'यतः सिद्रं प्रमाणाद्वे' ये दो पद्य (नं० ५२८, ५५७ ) इन पद्योंके सिलसिले में बढ़े हुए हैं । सम्भव है कि वे लाटीसंहिताकी प्रतियोंमें छूट गये हों । इस तरह पर ४३८ पद्य दोनों ग्रन्थोमें समान हैं-अथवा यों कहना चाहिए कि लाटीसंहिताका एक चौथाईसे भी अधिक भाग पंचाध्यायीके साथ एक-वाक्यता रखता है। ये सब पद्य दूसरे पद्योंके मध्यमें जिस स्थितिको लिये हुए हैं उसपरसे यह नहीं कहा जासकता कि वे 'क्षेपक' हैं या एक ग्रन्थकारने दूसरे ग्रन्थकारकी कृतिपरसे उन्हें चुराकर या उंटाकर और अपने बनाकर रक्खा है । लाटीसंहिताके कर्त्ताने तो अपनी रचनाको 'अनुच्छिष्ट' और 'नवीन' सूचित भी किया है और उससे यह पाया जाता है कि लाटासंहितामें थोड़ेसे 'उक्तंच' पद्योंको छोड़कर * यथा : मत्यं धर्मरसायनो यदि तदा मां शिक्षयोपक्रमान। सारोद्धारमिवाप्यनुग्रहतया स्वल्पाक्षरं सारवत् ॥ आर्ष चापि मृदूक्तिभिः स्फुटमनुच्छिष्टं नवीनं मह निर्माणं परिधेहि संघनृपतिर्मयोप्यवादीदिति ॥७॥ · श्रुत्वेत्यादिवचः शतं मृदुरुचिनिर्दिष्टनामा कविः । नेतुं यावदमाघतामभिमतं सोपक्रमायोद्यतः ॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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