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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
एक ही टकसालके जान पड़ते हैं। इसके सिवाय, दोनों ग्रन्थोंमें सैंकड़ों पद्य भी प्रायः एक ही पाये जाते हैं और उनका खुलासा इस प्रकार है:.. (क) लाटीसहिताके तीसरे सर्गमें, सम्यगदृष्टिके स्वरूपका निरूपण करते हुए, ननूल्लेखः किमेतावान्' इत्यादि पद्य न० ३४ (मुद्रितमें २७) से तद्यथा सुखदुःखादि' इस पद्य नं० ६० (मुद्रितमें ५४) तक जो २७ पद्य दिये हैं वे वे ही हैं जो पंचाध्यायी टीकाके उत्तरार्धमें नं० ३७२ से ३६६ तक और मूल प्रतिमें नं० ३७४ से ४०१ तक दर्ज हैं। इसी तरह ६१ (मुद्रितमें ५५) नम्बरसे १२६ ( मुद्रितमें ११६)वें नं० तकके ६६ पद्य भी प्रायः वे ही हैं जो सटीक प्रतिमें ४०१ से ४७६ तक और मूल प्रतिमें ४१२ से ४७६ तक पाये जाते हैं। हाँ, 'अथानुरागशब्दस्य' नामका पद्य नं० ४३५ ( ४३७ ) पंचाध्यायी में अधिक है । हो सकता है कि वह लेखकोंसे छूट गया हो, लाटीसंहिताके निर्माणसमय उसकी रचना ही न हुई हो या ग्रन्थकारने उसे लाटीसंहितामें देनेकी जरूरत ही न समझी हो । इनके सिवाय, इसी सर्गमें, नं० १६१ ( मुद्रितमें १५२) से १८२ ( मुद्रितमें १७३) तकके २२ पद्य और भी हैं जो पंचाध्यायी ( उत्तरार्द्ध) के ७२१ ( ७२५ ) से ७४२ ( ७४६ ) नम्बर तकके पद्योंके साथ एकता रखते हैं।
(स्त्र) लाटीसंहिताका चौथा सर्ग, जो आशीर्वाद के बाद 'ननु सुदर्शनस्यैतत'पद्यसे प्रारम्भ होकर 'उक्तः प्रभावनांगोऽपि' : पद्य पर समाप्त होता है, ३२३ पद्योंके करीबका है । इनमेंसे नीचे लिखे दो पद्योंको छोड़कर शेष सभी पद्य पंचाध्यायीके उत्तरार्ध (द्वितीय प्रकरण )में नं० ४७७ (४८० ) से ७२० (७२४) और ७४३ (७४७ ) से ८२१ (८२५) तक प्रायः ज्योंके त्यों पाये जाते हैं
येनांशेन ज्ञानं तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ॥२६८ (२७४)
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