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________________ प्रस्तावना उक्तगाथार्थसूत्रेऽपि प्रशमादि-चतुष्टयम् । नातिरिक्तं यतोऽस्त्यत्र लक्षणस्योपलक्षणम् ।।४६७|| इस पद्यपरसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ग्रन्थकारने उक्त गाथाको स्वयं उद्धृत करके उसे अपने ग्रन्थका एक अंग बनाया है और उसके विषयका स्पष्टीकरण करने अथवा अपने कथनके साथ उसके कथनका सामंजस्य स्थापित करनेका यहींसे उपक्रम किया है-अगले कई पद्योंमें इसी विषयकी चर्चा की गई है। फिर उक्त गाथाको क्षेपक कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। (२) पंचाध्यायीमें ग्रन्थकर्ताने अपनेको जगह जगह 'कवि' लिखा हैं'कवि' रूपसे ही अपना नामोल्लेख किया है, जैसाकि आगे चलकर (नं० ५ से ) पाठकोंको मालूम होगा, और अमृतचन्द्रसूरि अपने ग्रन्थों में कहीं भी अपनेको 'कवि' नहीं लिखते हैं। इससे भी यह जाना जाता है कि पंचाध्यायी अमृतचन्द्राचार्यकी कृति नहीं है। अस्तु । यह तो हुअा अमृतचन्द्राचार्य के द्वारा प्रकृत ग्रन्थके न रचे जाने आदि-विषयक सामान्य विचार, अब ग्रन्थके वास्तविक कर्ता और उसके निर्माण-समय-सम्बन्धी विशेष विचारको लीजिए। (३) पंचाध्यायीकी जब लाटीसंहिताके साथ तुलनात्मक-दृष्टिसे आन्तरिक जाँच (परीक्षा)की जाती है तो यह मालूम होता है कि ये दोनों ग्रन्थ एक ही विद्वानकी रचनाएं हैं। दोनोंकी कथनशैली, लेखन-प्रणाली अथवा रचना-पद्धति एक-जैसी है। ऊहापोहका ढंग, पदविन्यास और साहित्य भी दोनोंका समान है । पंचाध्यायीमें जिस प्रकार किञ्च, ननु, अथ, अपि, अर्थात्, अयमः, अयं भावः, एवं, नैवं, मैवं, नोह्य, न चाशंक्यं, चेत, नो चेत्, यतः,ततः, अत्र,तत्र,तद्यथा इत्यादि शब्दोंके प्रचुर प्रयोग के साथ विषयका प्रतिपादन किया गया है, उसी तरह वह लाटीसंहिताम भी पाया जाता है । संक्षेपमें, दोनों एक ही लेखनी, एक ही टाइप और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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