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________________ १२ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड लाटीसंहिता) का यथेष्ट परिचय भी मिल जायगा, जिसको देना भी यहाँ इष्ट है : (१) पंचाध्यायीमें, सक्यक्त्वके प्रशम-संवेगादि चार गुणोंका कथन करते हुए, नीचे लिखी एक गाथा ग्रन्थकार-द्वारा उद्धृत पाई जाती है: संवेओ णिवेओ शिंदण गरुहा य उवसमो भत्ती। वच्छल्लं अणुकंपा अट्ठगुणा हुंति सम्मत्ते ॥ यह गाथा, जिसमें सम्यकत्वके संवेगादिक अष्टगुणोंका उल्लेख है, वसुनन्दिश्रावकाचारके सम्यक्त्व प्रकरणकी गाथा है-वहाँ मूलरूपसे नं० ४६ पर दर्ज है और इस श्रावकाचारके कर्ता प्राचार्य वसुनन्दी विक्रमकी १२वीं शताब्दीके अन्तिम भागमें हुए हैं। ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि पंचाध्यायी विक्रमकी १२वीं शताब्दीसे बादकी बनी हुई है, और इसलिए वह उन अमृतचन्द्राचार्यकी कृति नहीं हो सकती जो कि वसुनन्दीसे बहुत पहले हो गये हैं। अमृतचन्द्राचार्य के 'पुरुषार्थसिद्धथु पाय' ग्रन्थका तो 'येनांशेन सुदृष्टिः' नामका एक पद्य भी इस ग्रन्थमें उद्धृत है, जिसे ग्रन्थकारने अपने कथनकी प्रमाणतामें 'उक्तं च' रूपसे दिया है और इससे भी यह बात और ज्यादा पुष्ट होती है कि प्रकृत ग्रन्थ अमृतचन्द्राचार्यका बनाया हुआ नहीं है। __ यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि पं० मक्खनलालजी शास्त्रीने अपनी भाषा टीकामें उक्त गाथाको 'क्षेपक' बतलाया है और उसके लिये कोई हेतु या प्रमाण नहीं दिया, सिर्फ फुटनोटमें इतना ही लिख दिया है कि"यह गाथा पंचाध्यायी में क्षेपक रूपसे आई है।" इस फुटनोटको देखकर बड़ा ही खेद होता है और समझमें नहीं आता कि उनके इस लिखनेका क्या रहस्य है !! यह गाथा पंचाध्यायीमें किसी तरह पर भी क्षेपक-बादको मिलाई हुई-नहीं हो सकती, क्योंकि ग्रन्थकारने अगले ही पद्यमें उसके उद्धरणको स्वयं स्वीकार तथा घोषित किया है, और वह पद्य इस प्रकार है: Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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