________________
प्रस्तावना
लेखके अनुकूल या प्रतिकुल कुछ लिखनेकी हिम्मत की, न अपने सहपाठी पं० मक्खनलालजीके मतको ही अपनाया और न ग्रन्थकर्ता के नामादिविषयमें अपनी अोरसे दो शब्दोंका लिखना अथवा समाजमें चली हुई सामयिक चर्चाका उल्लेख करना ही अपना कोई कर्तव्य समझा, ओर इसलिये इतने बड़े ग्रन्थकी मात्र एक पेजकी ऐसी भूमिका लिखकर. ही ग्रन्थको प्रकाशित कर दिया जिसमें ग्रन्थकर्ताके नामादिक-परिचय-विषयको स्पर्श तक नहीं किया गया है और इस तरह अपने पाठकोंको ग्रन्थकर्ता के विषयमें घोर अन्धकारमें ही रखना उचित समझा है !!! यहाँ पर मैं आपके एक पत्र ता० ३ जनवरी सन् १६३१ की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर देना उचित समझता हूँ जो आपने मुझे ४००श्लोकोंकी टीका छपजानेपर लिखा था और जिसकी ये पंक्तियाँ प्रकृत विषयसे खास सम्बन्ध रखती हैं :
"४०० श्लोक छप चुके हैं पूर्वार्ध पूर्ण होते ही श्रीमानकी सेवामें भेजनेका विचार है।
मेरा मत निश्चय होगया है कि ग्रन्थ श्रीविद्वद्वर्य राजमल्लजी कृत ही है सो मैं भूमिकामें लिखनेवाला हूँ।" ।
इन पंक्तियोंमें दिये हुए निश्चय और आश्वासन परसे पाठक मेरे उक्त खेद-व्यक्तीकरणके औचित्यको भले प्रकार समझ सकते हैं । पञ्चाध्यायीकी क त्व-विषयक खोज
अब पाठक यह जाननेके लिये जरूर उत्सुक होंगे कि वह युक्तिवाद अथवा खोज क्या है जिसके आधार पर पञ्चाध्यायीको कविराजमल्लकृत सिद्ध किया गया है, और उसका जान लेना इसलिये भी आवश्यक है कि अब तक पंचाध्यायीके जितने भी संस्करण प्रकाशित हुए हैं वे सब ग्रन्थकर्ताके नामसे शून्य हैं और इसलिये उनपरसे पाठकोंको ग्रन्थके कर्तृत्व विषयमें कुछ भ्रम होसकता है। अतः उसको यहाँपर संक्षेपमें ही प्रकट किया जाता है, और इससे पाठकोंको दोनों ग्रन्थों ( पंचाध्यायी और
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org