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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड क्योंकि मैं भी उससे पहले ग्रन्थके कर्तृत्व-विषयक अन्धकारमें भटक रहा था। और इसलिये मैंने 'कविराजमल्ल और पंचाध्यायी' नामक लेखमें अपनी खोजको निबद्ध करके उसे 'वीर' पत्र (वर्ष ३ अंक १२-१३)के द्वारा विद्वानोंके सामने रक्खा । सहृदय एवं विचारशील विद्वानोंने उसका अभिनन्दन किया-उसे अपनाया, और तभीसे विद्वजनता यह समझने लगी कि पंचाध्यायी कविराजमल्लजीकी कृति है । आज तक उस खोजपूर्ण लेखका कहींसे भी कोई प्रतिवाद अथवा विरोध नहीं हुआ। प्रत्युत इसके, पं० नाथूरामजी प्रेमीने माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालामें लाटीसंहिताको प्रकाशित करते हुए उसके साथ उसे भी उद्धृत किया, और जम्बूस्वामिचरितके प्रकाशनावसरपर उसकी भूमिकामें श्री जगदीशचन्द्रजी शास्त्री एम० ए० ने साफ तौर पर यह घोषणा की कि____ "अाजसे अनेक वर्ष पूर्व जब स्व० पं० गोपालदासजी वरैयाकी कृपासे जैन विद्वानोंमें पंचाध्यायी नामक ग्रंथके पठन-पाठनका प्रचार हुआ, उस समय लोगोंकी यह मान्यता (धारणा ?)होगई थी कि यह ग्रन्थ अमृतचन्द्रसूरिकी रचना है। परन्तु लाटीसंहिताके प्रकाश में आनेपर यह धारणा सर्वथा निर्मल सिद्ध हुई। और अब तो यह और भी निश्चयपूर्वक कहा जासकता है कि पंचाध्यायी, लाटीसंहिता, जम्बूस्वामिचरित और अध्यात्मकमलमार्तण्ड ये चारों ही कृतियाँ एक ही विद्वान् पं० राजमल्लके हाथको हैं ।"
परन्तु यह देखकर बड़ा खेद होता है कि मेरे उक्त लेखके कोई आठ वर्ष बाद सन् १९३२ में जब पं० देवकीनन्दनजीने पंचाध्यायीकी अपनी टीकाको कारंजा-अाश्रमसे प्रकाशित कराया तब उन्होंने यह जानते-मानते
और पत्रों द्वारा मेरी उस कतृ त्व-विषयक खोजको स्वीकार करते हुए तथा यह आश्वासन देते हुए भी कि उसके अनुरूप ही ग्रंथकर्ताका नाम टीकाके साथ प्रकाशित किया जायगा, अपनी उस टीकाको बिना ग्रन्थकर्ता के नामके ही प्रकाशित कर दिया। एकाएक किसीके कहने-सुननेका उनपर कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा जान पड़ता है कि उन्होंने न तो मेरे उक्त
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