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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
जैसे छाया सहायक होती है। छाया उन्हें जबरदस्तीसे नहीं ठहराती है वे ठहरने लगते हैं तो अप्रेरकरूपसे सहकारी होजाती है। अतः पृथिवी आदि सबकी स्थितिमें साधारण सहायक रूपसे इस द्रव्यका स्वीकार करना आवश्यक है । यदि यह द्रव्य न हो तो गतिशील जीव-पुद्गलोंकी स्थिति नहीं बन सकेगी। यद्यपि गतिकी तरह स्थिति भी जीव और पुद्गलोंका ही परिणाम व कार्य है तथापि वे स्थिति के उपादान कारण हैं, निमित्तकारण रूपसे जो कार्यकी उत्पत्तिमें अवश्य अपेक्षित है अधर्म द्रव्यका मानना आवश्यक है। जो धर्मद्रव्यकी तरह लोक अलोककी मर्यादाको भी बांधता है।
धर्म और अधर्म द्रव्योंमें धर्मपर्यायका कथनधर्माधर्माख्ययोर्वै परिणमनमदस्तत्त्वयोः स्वात्मनेव धर्माशेश्च स्वकीयागुरुलघुगुणतः स्वात्मधर्मेषु शश्वत् । सिद्धात्सर्वज्ञवाचः प्रतिसमयमयं पर्ययः स्याद्वयोश्च शुद्धो धर्मात्मसंज्ञः परिणतिमयतोऽनादिवस्तुस्वभावात्।।३२॥
अर्थ-धर्म और अधर्म इन दोनों द्रव्योंका परिणमन अपने ही रूप होता है-अथवा यों कहिये कि इन दोनों द्रव्योंमें सर्वज्ञदेवके कहे आगमसे सिद्ध अपने अगझलघुगुणोंसे अपने ही धर्माशों--स्वभावपर्यायोंके द्वारा अपने ही आत्मधर्मो--स्वभावपर्यायोंमें सदा-प्रतिसमय परिणमन होता रहता है और यह परिणमन परिणमनशील अनादि वस्तुका निज स्वभाव होनेसे शुद्ध है तथा धर्मपर्याय संज्ञक है-अर्थात् उस परिणमनकी शुद्ध 'धर्म' पर्याय संज्ञा है।
* 'अगुरुलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिच्च-पंचास्ति० ८४
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