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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
धर्मद्रव्यका स्वरूपधर्मद्रव्यगुणो हि पुद्गल चितोश्चिद्द्रव्ययोरात्मभा (?) गच्छद्भाववतोर्निमित्तगतिहेतुत्वं तयोरेव यत् । मत्स्यानां हि जलादिवद्भवति चौदास्येन सर्वत्र च प्रत्येकं सकृदेव शश्वदनयोर्गत्यात्मशक्तावपि ||३०|
अर्थ - पुद्गल और चेतनकी गतिरूप अर्थक्रिया में सहायक होना धर्मद्रव्यका गुण है - उपकार है । जो गमन करते हुये जीव और पुद्गलोंके ही गमनमें निमित्तकारणतारूप है । यद्यपि जीव और पुद्गल प्रत्येक निरन्तर स्वयं गतिशक्तिसे युक्त हैं तथापि इनके ( जीव और पुद् गलके) गमनमें यह द्रव्य उसी प्रकार उदासीनरूप से कारण होता है, जिसप्रकार कि जल मछलीके चलनेमें उदासीन कारण होता है- अर्थात् मछली चलने लगती है तो जल सहायक होजाता है । अथवा यों कहिये कि मछली में चलने की शक्ति होते हुये भी वह जलकी सहायतासे ही चलती है और उसके बिना नहीं चल सकती। उसी प्रकार जीव और पुद्गलमें स्वयं गमन करने की सामर्थ्य होते हुये भी धर्मद्रव्यकी सहायता से ही दोनों गमन करते हैं अगर वह न हो तो इनका गमन नहीं हो सकता । यह धर्मद्रव्य उन्हें जबरदस्ती से नहीं चलाता है, किन्तु
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* 'गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमण सहयारी | तोयं जह मच्छारां श्रच्छंता व सो रोई ॥' - द्रव्यसं० १७ 'उदयं जह मच्छाणं गमगा गुग्गहयरं हवदि लोए । तह जीवपुग्गलाणं धम्मं दव्वं वियाहि ||' - पंचास्ति० ८५ 'य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि रणदवियस्स । हवदि गदी सप्पसरो जीवाणं पुग्गलाणं च ॥' - पंचास्ति०८८
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