________________
७२
वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला तद्देशाः किल लोकमात्रगणिताः पिंडीवभूवुः स्वयं पर्यायो विमलः स एष गुणिनोऽधर्मस्य धर्मस्य च ॥२६॥
अर्थ-धर्म और अधर्म द्रव्योंके प्रदेश, गुण तथा शुद्ध पर्यायसमूह ये सब समानरूपसे धर्म और अधर्म द्रव्य हैं और दोनों ही अमूर्तिक तथा शुद्ध हैं-विभाव परिणमनसे रहित हैं। प्रत्येकके प्रदेश लोकप्रमाण हैं और पिण्डरूप हैं। यही पिण्डरूप प्रदेश धर्म
और अधर्म द्रव्यकी शुद्धपर्याय है। __ भावार्थ-धर्म और अधर्म द्रव्यमें भाववती शक्ति विद्यमान है। क्रियावती शक्ति नहीं । वह तो केवल जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंमें ही कही गई* । अतः धर्म और अधर्म द्रव्यमें जो परिणमन होता है वह शुद्ध अर्थपर्यायरूप ही होता है। फलितार्थ यह कि जीव और पुद्गलोंमें क्रियावती शक्तिके निमित्तसे अशुद्ध परिणमन भी होता है पर धर्म, अधर्म द्रव्यमें उसके न होनेसे अशुद्ध परिणमन नहीं होता। केवल शुद्ध ही होता है। इसीलिये इन दोनों द्रव्योंमें पिण्डरूप प्रदेश ही उनकी शुद्ध पर्यायें कही गई हैं। अथवा अगुरुलघुगुणोंके निमित्तसे होनेवाला उत्पाद और व्यय धर्म, अधर्म द्रव्यकी शुद्ध पर्यायें हैं।
* 'भाववन्तौ क्रियावन्तौ द्वौवेतौ जीवपुद्गलौ ।
तौ च शेषचतुष्कं च षडेते भावसंस्कृता॥-पंचाध्या० २-२५ तत्र क्रिया प्रदेशानां परिस्पन्दश्वलात्मकः ।
भावस्तत्परिगामोऽस्ति धारावाह्य कवस्तुनि ॥' पंचाध्या. २-२६ + 'अगुरुलघुगेहिं सया तेहिं अणंतेहिं परिणदं णिच्चं। गदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं सयमकज्जं ॥'-पंचास्ति० ८४
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org