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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड अर्थ-धर्म और अधर्म ये दो द्रव्य लोकाकाशके बराबर असंख्यात प्रदेशी हैं, धर्मात्मक हैं-धर्मपर्यायसे युक्त हैं, संस्थित हैं-अपने स्वरूपसे कभी च्युत नहीं होते हैं, नित्य हैं-ध्रुव हैं, प्रदेशसमूहमें कम्परहित हैं-निष्क्रिय हैं, दोनों ही स्वतन्त्ररूपसे सिद्ध हैं, तीनों कालोंमें शुद्ध हैं-विकार रहित हैं, पृथक हैं--परस्पर और अन्यद्रव्योंसे भिन्न हैं, दोनों ही गुणीरूप हैं। मैं 'राजमल्ल' उन दोनों के द्रव्यधर्मों-द्रव्यस्वरूपोंका वर्णन करता हूँ।
भावार्थ-अजीव द्रव्यके पाँच भेद हैं-(१) पुद्गल, (२) धर्म, (३) अधर्म, (४) आकाश, और (५) काल । इनमें पुद्गलद्रव्यका वर्णन इसके पहले ही हो चुका है। अब धर्म और अधर्मका कथन किया जाता है। ये दोनों द्रव्य समस्त लोकाकाशमें तिलोंमें तैलकी तरह सर्वत्र व्याप्त हैं। नित्य, अवस्थित, अरूपी और निष्क्रिय हैं । अर्थपर्याय (धर्मपर्याय) रूप परिणमनसे युक्त हैं। प्रसिद्ध जो पुण्य और पाप रूप धर्म अधर्म हैं उनसे ये धर्म अधर्म पृथक् (जुदे) हैं, द्रव्यरूप हैं और जीव तथा पुद्गलोंके चलने और ठहरने में क्रमशः उदासीनरूपसे-अप्रेरकरूपसे सहायक होते है।
धर्म और अधर्म द्रव्योंकी प्रदेश, गुण और पर्यायोंसे सिद्धिशुद्धा देश-गुणाश्च पर्ययगणा एतद्धि सर्व समम् द्रव्यं स्यान्नियमादमूर्तममलं धर्म ह्यधर्म च तत् । * 'जादो अलोगलोगो जेसि सब्भावदो य गमणठिदी।
दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य ॥-पंचा०८७ विजदि जेसिं गमणं ठाणं पुण तेसिमेव संभवदि । ते सगपरिणामेहिं दु गमणं ठाणं च कुव्वंति ॥'--पंचा० ८६
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