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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला तेषां च स्वभिदो भिदेतरतनुर्भावश्च तच्छक्कयो ह्यर्थस्तक्षतिवृद्धिरूप इति चाशुद्धश्च धर्मात्मकः ॥२७॥ अर्थ---शुद्धत्वभावसे रहित-अशुद्ध द्वयणुक आदि स्कन्धोंमें जो रूपादिक गुण हैं, वे पुद्गलमय हैं-पुद्गलस्वरूप ही हैं तथा इनमें भी स्वभेद-अपने भेदोंकी अपेक्षा अनेक प्रकारका (भिन्नाभिन्न) परिणमन और अविभागप्रतिच्छेदोंके समूहरूप शक्तियाँ होती है। इनमें हानिवृद्धिरूप 'धर्मसंज्ञक' अशुद्ध पर्यायें होती हैं।
भावार्थ-शुद्ध पुद्गलपरमाणुकी तरह अशुद्ध पुद्गल-स्कन्धमें भी रूप, रस, गध और स्पर्श ये चार गुण अथवा उत्तरभेदोंकी अपेक्षा यथासंभव बीसगुण पाये जाते हैं। और अनेक प्रकारका परिणमन भी होता है। इन गुणोंमें जो शक्तियाँ रहती हैं उनमें 'धर्म' नामकी अशद्ध पर्याय होती हैं। विशेष यह कि परमाणुगतरूपादिनिष्ठ शक्तियों में तो धर्मनामकी शुद्ध ही पर्यायें होती हैं और स्कन्धगतरूपादिनिष्ट शक्तियोंमें अशुद्ध धर्मपर्यायें हुआ करती हैं।
इस प्रकार पुद्गल द्रव्यका लक्षण, उसके भेद, गुण और पर्यायोंका संक्षेपमें वर्णन किया।
(३,४) धर्म-अधर्मद्रव्य-निरूपण
धर्म और अधर्मद्रव्यके कथनकी प्रतिज्ञालोकाकाशमितप्रदेशवपुषौ धर्मात्मको संस्थितो नित्यौ देशगणप्रकपरहितौ सिद्धौ स्वतन्त्राच तो। धर्माधर्मसमाह्वयाविति तथा शुद्धौ त्रिकाले पृथक् स्यातां द्वौ गुणिनावथ प्रकथयामि द्रव्यधर्मास्तयोगार८॥
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