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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड पुद्गल परमाणुमें रूपादिके शाश्वतत्वकी सिद्धिशुद्धैकाणुसमाश्रितास्त्रिसमये तत्रैव चाणौ स्थिताश्चत्वारः किल रूपगंधरससंस्पर्शा ह्यनन्ताङ्गिनः। मूर्तद्रव्यगुणाश्च पुद्गलमया भेदप्रभेदैस्तु ते ये नैके परिणामिनोऽपि नियमाद्धौव्यात्मकाः सर्वदा॥२२॥ __ अर्थ-रूप, गंध, रस और स्पर्श ये चारों-तीनों कालों ( भूत, भविष्यद् और वर्तमान )में एक शुद्ध परमाणुके आश्रित हैं और उसमें सदैव विद्यमान रहते हैं तथा चारों ही अनन्त अङ्गों-अविभागी-प्रतिच्छेदों ( शक्तिके वे सबसे छोटे टुकड़े, जिनका दूसरा भाग-हिस्सा न होसके )-वाले हैं। मूर्तद्रव्यके गुण हैं, पुद्गलमय हैं-पुद्गलस्वरूप ही हैं। भेद और प्रभेदोंके द्वारा अनेक हैं। और जो नियमसे परिणामात्मक-उत्पादव्ययात्मक-होते हुए भी सदा ध्रौव्यात्मक-नित्यस्वरूप हैं-. कभी उनका अभाव नहीं होता। ___भावार्थ-रूपादि चारों गुण शुद्ध पुद्गल परमाणुनिष्ठ हैं
और वे सदा उसमें रहते हैं। ऐसा कोई भी समय नहीं, जब रूपादिचारों उसमें न हों; क्योंकि गुणोंका कभी अभाव नही होता-वे अन्वयरूपसे हमेशा मौजूद ही रहते हैं। अतः जिन लोगोंकी यह मान्यता है कि 'उत्पन्नं द्रव्यं क्षणमगुणं तिष्ठति' अर्थात 'उत्पत्तिके क्षणमें द्रव्य गुणशून्य रहता है' वह खण्डित होजाती है। यथार्थ में गुणोंमें होनेवाले परिणमनोंका ही अभाव होता है। गुणोंका अभाव किसी भी समय नहीं होता । परमाणुओंके समूहका नाम स्कन्ध है अतः शुद्ध परमाणुमें रूपादिके रहनेका कथन करनेसे स्कन्धमें भी वे कथित होजाते हैं-अर्थात् स्कन्ध भी रूपरसादिके आश्रय हैं यह बात सिद्ध होजाती है।
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