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________________ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड शुद्ध पुद्गलद्रव्यकी अपने ही प्रदेश, गुण और पर्यायसे सिद्धिशुद्धः पुद्गलदेश एकपरमाणुः संज्ञया मूर्तिमांस्तद्देशाश्रितरूपगंधरससंस्पर्शादिधर्माश्च ये । तद्भावाश्च जगाद पुद्गलमिति द्रव्यं हि चैतत्त्रयं सर्व शुद्धमभेद-बुद्धित इदं चान्तातिगं संख्यया॥२०॥ अर्थ-एक प्रदेशी पुद्गलका एक परमाणु शुद्ध पुद्गलद्रव्य है और वह मूर्तिमानसंज्ञक है। उसके आश्रय रहनेवाले जो रूप, गन्ध, रस और स्पर्श आदि धर्म हैं और उनसे होनेवाले जो परिणमन हैं वे सब–तीनों ही (शुद्ध पुद्गलद्रव्य, रूपादि गुण और उनकी पर्याये ) पुद्गल हैं; क्योंकि तीनों ही जगह 'पुद्गल' इस प्रकारकी अभेद-बुद्धि होती है। समस्त शुद्ध पुद्गलद्रव्य संख्याकी अपेक्षा अन्तरहित अर्थात् अनन्त हैं। ___ भावार्थ-जैसा कि जीवद्रव्यके कथनमें पहले कह आये हैं कि तन्तु और शुक्लता आदि सब ही पट कहे जाते हैं अथवा द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों ही सत् माने जाते हैं। सत् द्रव्य है, सत् गुण है और सत पर्याय है इस तरह सत् तीनोंमें समानरूपसे व्याप्त है। यदि केवल द्रव्य ही अथवा गुण या पर्याय ही सत् हो तो शेष असत हो जायेंगे। अतः जिस प्रकार द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीनों ही सत् हैं उसी प्रकार एक प्रदेशी शुद्ध पुद्गल परमाणु, रूपादिगुण और उनकी पर्यायें ये तीनों भी 'पुद्गल' हैं; क्योंकि इन तीनों में ही पुद्गलकी अभेदबुद्धि होती है। और ये परमाणुरूप शुद्ध पुद्गलद्रव्य अनन्तानन्तप्रमाण हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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