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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड करता है। नयभेदसे यह शुद्धोपयोगी आत्मा दो प्रकारका है१ सविकल्पक और २ अविकल्पक ।
भावार्थ-जो महान आत्मा अपने शुद्ध आत्माके ही अनुभवका रसास्वादन करता है, तनिष्णात है, सब तरह के संक्लेशपरिणामोंसे रहित है,चारित्रादिका पूर्ण आराधक है, पुण्य-पाप परिणतियोंसे विहीन हैं, सदा रत्नत्रयका उपासक है, उभय प्रकार के परिग्रहसे रहित पूर्ण निर्ग्रन्थ साधु है वह शुद्धोपयोगी आत्मा है । यह
आत्मा कर्ममुक्त होता हुआ अन्तमें मोक्ष-सुखको पाता है। इसके दो भेद हैं-सविकल्पक और अविकल्पक । सातवें गुणस्थानवर्ती
आत्मा 'सविकल्पक' शुद्धोपयोगी हैं और आठवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तकके आत्मा और सिद्ध परमात्मा 'अविकल्पक' शुद्धोपयोगी हैं।
(२) पुद्गल-द्रव्य-निरूपण
पुद्गलद्रव्यके वर्णनकी प्रतिज्ञाद्रव्यं मूर्तिमदाख्यया हि तदिदं स्यात्पुद्गलः सम्मतो मूर्तिश्चापि रसादिधर्मवपुषो ग्राह्याश्च पंचेन्द्रियः। सर्वज्ञागमतः समक्षमिति भो लिङ्गस्य बोधान्मितात्तद्रव्यं गुणवृन्द-पर्यय-युतं संक्षेपतो वच्म्यहम् ॥ १६ ॥
अर्थ-निर्विवादरूपसे मूर्तिमान् द्रव्यको 'पुद्गल' माना हैजिस द्रव्यमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चार गुण पाये जाते हैं वह निश्चय ही पुद्गल है। और रस आदिरूप गुणशरीरका नाम 'मूर्ति' है। यह मूर्ति पाँचों इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने योग्य है
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