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वीर सेवामन्दिर-ग्रन्थमाला
भावार्थ - जो जीव हमेशा तीव्र संक्लेश परिणाम करता रहता है, पांच इन्द्रियोंके विषयों में आसक्त रहता है, अहिंसा, सत्य, चौर्य, ब्रह्मचर्य आदिका पालन नहीं करता है, अधिक परिग्रही और अधिक आरम्भी है, तीव्र कर्मोंवाला है वह अशुभ परिणामी कहा गया है । यह जीव सदा नवीन कर्मोंको ही बांधता और और उनके फलोंको भोगता रहता है। और इससे जो विपरीत है अर्थात जो दयालु है, परका उपकारी है, मन्दकषायी है, दानपूजा आदि सत्कार्यों में तत्पर रहता है, सबका हितैषी है, संयम आदिका पालक है, तत्त्वाभ्यासी है, वह शुभ कार्योंका कर्ता शुभपरिणामी - अच्छे परिणामोंवाला - शुभोपयोगी कहा गया है ।
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शुद्धोपयोगी आत्माका स्वरूपशुद्धात्मज्ञानदक्षः श्रुतनिपुणमतिर्भावदर्शी पुराऽपि चारित्रादिप्ररूढो विगतसकलसंक्लेशभावो मुनीन्द्रः । साक्षाच्छुद्धोपयोगी स इति नियमवाचाऽवधार्येति सम्यकर्मनोऽयं सुखं स्यान्नयविभजनतो सद्विकल्पोऽविकल्पः॥ १८ ॥
अर्थ - जो भव्यात्मा शुद्धात्माके अनुभव करनेमें दक्ष हैसमर्थ अथवा चतुर है, श्रुतज्ञान में निपुण है, भावदर्शी है - पूर्वकालीन अपने अच्छे या बुरे भावोंका दृष्टा है अथवा मर्म - रहस्यतत्त्वका जानकार है- अर्थात् वस्तुस्वरूपका ज्ञाता है, चारित्रादिपर आरूढ है, सम्पूर्ण संक्लेशभाव से मुक्त है, ऐसा वह मुनीन्द्रदिगम्बरमुद्राका धारक निर्ग्रन्थ-साधु-नियमसे साक्षात् पूर्ण शुद्धोपयोगी - पुण्य पापपरिणति से रहित शुद्ध उपयोगवाला है। यही महान आत्मा कर्मोंका नाश करता हुआ परमसुखको प्राप्त
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