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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
अशुद्धभाव होते हैं - अविरत सम्यग्दृष्टि आदिके दर्शनमोहके उपशम अथवा क्षयसे औपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्वरूप शुद्धभाव तथा चारित्रमोहके उदयसे दयिक क्रोध - मान-मायादिरूप अशुद्धभाव सम्भव हैं -- इनके होने में कोई विरोध नहीं है । इस प्रकार उक्त रीति और नयभेद से- नयविवक्षाको लेकर - शुद्धाशुद्ध आत्मभावों के प्रति कथन है--उनका प्रतिपादन किया जाता है। इसके ऊपर - चतुर्थ गुणस्थानके आगे - तो सम्यग्दर्शनको शुद्ध करके भावकी अपेक्षा शुद्धि है ।
भावार्थ - चौथे गुणस्थान में एक ही आत्मा में शुद्ध और अशुद्ध दोनों तरहके भाव उपलब्ध होते हैं । दर्शनमाहनीय कर्मके क्षयसे क्षायिकरूप शुद्ध भाव और चारित्रमोहके उदयसे दयिकरूप अशुद्धभाव स्पष्टतया पाये ही जाते हैं । अतः इनके एक जगह रहने में विरोधकी आशंका करना निर्मूल है ।
उपयोगकी अपेक्षा आत्माके तीन भेद और शुभोपयोग तथा अशुभोपयोगका स्वरूपसंक्लेशासक्तचित्तो विषयसुखरतः संयमादिव्यपेतो जीवः स्यात्पूर्ववद्धोऽशुभ परिणतिमान् कर्मभारप्रवोढा । दानेज्यादौ प्रसक्तः श्रुतपठनरतस्तीव्र संक्लेशमुक्को वृत्त्याद्यालीढभावः शुभपरिणतिमान् सद्विधीनां विधाता ॥ १७॥
अर्थ- जो संक्लेश परिणामी है, विषय-सुखलंपटी है, संयमादिसे हीन है, पूर्वकर्मोंसे बद्ध है, ऐसा वह कर्मभारको ढोनेवाला जीव अशुभोपयोगी है । और जो दान, पूजा आदिमें लीन है, शास्त्र के पढ़ने-पढ़ाने और सुनने-सुनाने में रत है - दत्तचित्त है - तीव्र संक्लेशों से रहित है, चारित्रादिसे सम्पन्न है, ऐसा शुभकर्मों-सत्प्रवृत्तियों का कर्ता जीव शुभ परिणामी - शुभोपयोगी है।
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