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________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला शंका-एक आत्मामें परस्पर विरोधी शुद्ध और अशुद्धभाव कैसे संभव हैं ? क्योंकि इन दोनों में प्रकाश और अन्धकार तथा जल और अग्निकी तरह परस्पर विरोध है ? ___समाधान-ऐसी शंका करना ठीक नहीं है। क्योंकि नयकी अपेक्षासे एक कालमें भी आत्माके परिणामोंके वशसे और उनका वैसा स्वभाव होनेसे परस्पर विरुद्ध मालूम पड़ रहे शुद्धाशुद्धभाव एक आत्मामें सम्भव हैं-अशुद्धनिश्चयनय या व्यवहारनयसे अशुद्धभाव और शुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षासे शुद्धभाव कहे गये हैं। अतः एक आत्मतत्वमें इनके सद्भाव में कोई विरोध नहीं है। भावार्थ-कालक्रमसे तो दोनों भाव एक आत्मामें सम्भव हैं ही; पर एक समयमें भी वे भाव अपेक्षाभेदसे सम्भव हैं। व्यवहारनय या अशुद्ध निश्चयनयकी विवक्षा या अपेक्षा होनेपर अशुद्धभाव और शुद्ध निश्चयनयकी विवक्षा एवं अपेक्षा होनेपर शुद्धभाव एक साथ स्पष्टतया सुप्रतीत होते हैं। आगे ग्रन्थकार इसका स्वयं खुलासा करते हैं। आत्मामें शुद्ध और अशुद्धभावोंके होनेका समर्थनसट्टग्मोहक्षतेः स्युस्तदुदयजनिभावप्रणाशाद्विशुद्धाः भावा वृत्त्यावृतेर्वोदयभवपरिणामाप्रणाशादशुद्धाः । इत्येवं चोक्तरीत्या नयविभजनतो घोष इत्यात्मभावान दृष्टिं कृत्वा विशुद्धिं तदुपरितनतो भावतो शुद्धिरस्ति ॥१६॥ अर्थ-दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम अथवा क्षयसे तथा उसके ही उदयजन्यभावोंके नाशसे विशुद्धभाव और चारित्रमोहके उदयजन्य परिणामोंके नाश न होनेसे अर्थात् उनके सद्भावसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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