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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
५५ भावार्थ-व्यवहारनयसे आत्मा पुद्गल-द्रव्य-कर्मो, अशुद्ध निश्चयनयसे रागद्वेषादि-चेतन-भावकर्मों और शुद्धनिश्चनयसे केवल आत्मीय-ज्ञान-दर्शनादि-परिणामोंका कथंचित् कर्ता और भोक्ता माना गया है।
अन्तरात्माका विशेष वर्णनभेदज्ञानी करोति स्वसमयरत इत्यात्मविज्ञानभावान् भुंक्त चैतांश्च शश्वत्तदपरमपदे वर्तते सोऽपि यावत् । तावत्कर्माणि बध्नाति समलपरिणामान्विधत्ते च जीवो ह्यशेनैकेन तिष्ठेत्स तु परमपदे चेन्न कर्ता च तेषाम् ॥२४॥ ___ अर्थ-भेदज्ञानी अन्तरात्मा अपनी आत्मामें लीन रहता हा आत्मीय ज्ञानमय-भावोंका कर्ता और भोक्ता है। यह जबतक जघन्य पदमें--बहिरात्मा अवस्थामें--रहता है तबतक कर्मोको बांधता है और अशुद्ध परिणामोंको करता है, किन्तु जब एक अंशसे रहता है-'आत्माको आत्मा समझता है और परको पर समझता है' इस रूपसे अपनी प्रवृत्ति करता है और ऐसी प्रवृत्ति परमपदमें-अन्तरात्मा अवस्थामें ही बनती है, तब फिर इन अशुद्धभावोंका न कर्ता है और न भोक्ता। उस समय तो केवल अपने शुद्ध चेतन भावोंका ही कर्ता और भोक्ता है।
आत्मामें शुद्ध और अशुद्ध भावोंके विरोधका परिहारशुद्धाशुद्धा हि भावा ननु युगपदिति स्वैकतत्त्वे कथं स्युरादित्यायुद्योत-तमसोरिव जल-तपनयोर्वा विरुद्धस्वभावात्। इत्यारेका हि ते चेन्न खलु नयवलात्तुल्यकालेऽपि सिद्धेस्तेषामेव स्वभावाद्धि करणवशतो जीवतत्त्वस्य भावात्॥१५॥
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