________________
वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला परिग्रहके त्यागी, निस्पृह, शुद्धोपयोगी-आत्मध्यानी मुनीश्वर 'उत्तम अन्तरात्मा' हैं। देशव्रतोंको धारण करनेवाले गृहस्थ और छठे गुणस्थानवर्ती निर्ग्रन्थ साधु 'मध्यम अन्तरात्मा' हैं । तथा चतुर्थगुणस्थानवर्ती ब्रतरहित सम्यग्दृष्टि जीव जघन्य अन्तरात्मा हैं। अन्तर्दृष्टि होनेसे ये तीनों ही अन्तरात्मा मोक्षमार्गमें चलनेवाले हैं। परमात्मा दो प्रकारके हैं-सकल परमात्मा और निकल परमात्मा। घातियाकर्मोको नाश करनेवाले और सम्पूर्ण पदार्थोंको जाननेवाले श्रीअरहंत भगवान् 'सकल परमात्मा' हैं और सम्पूर्ण ( घातिया और अघातिया) कर्मोसे रहित, अशरीरी, सिद्ध परमेष्ठी 'निकल परमात्मा' हैं। . 'आत्मा' के कर्तृत्व और भोक्तृत्वका कथनकर्ता भोक्ता कथंचित्परसमयरतः स्याद्विधीनां हि शश्वद्रागादीनां हि कर्ता स समलनयतो निश्चयात्स्याच्च भोक्ता । शुद्धद्रव्यार्थिकाद्वा स परमनयतः स्वात्मभावान् करोति भुंक्त चैतान् कथंचित्परिणतिनयतो भेदबुद्धयाऽप्यभेदे।।१३।। ___ अर्थ-व्यवहारनयसे आत्मा पर-पर्यायोंमें मग्न होता हुआ पुद्गलकर्मोका कथंचित् कर्ता और भोक्ता है तथा अशुद्धनिश्चयनयसे रागद्वेषादि चेतन-भावकर्मीका कर्ता और भोक्ता है। शुद्धद्रव्यार्थिक निश्चयनयकी अपेक्षा आत्मीक शुद्ध-ज्ञानदर्शनादि-भावोंका ही कथंचित् कर्ता और भोक्ता है। यद्यपि ये ज्ञान-दर्शनादि भाव आत्मासे अभिन्न हैं तथापि पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिसे भेद बुद्धि होनेके कारण भिन्न हैं। अतः आत्मा अपने ज्ञान-दर्शनादि-परिणामोंका कथंचित् कर्ता और भोक्ता कहा जाता है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org