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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
अर्थ - अन्वय (सामान्य) की अपेक्षासे - द्रव्यार्थिकनयसेआत्मा एक है किन्तु परिणामात्मक होने के कारण --- पर्यायार्थिकनयकी दृष्टि - भावों को लेकर वह तीन प्रकारका कहा गया है* (१) बहिरात्मा, (२) अन्तरात्मा और (३) परमात्मा । पर पर्याय में लीन शरीरादि पर वस्तुओं को अपना समझनेवाला आत्मा 'बहिरात्मा' है । भेदज्ञान और निर्विकल्पक समाधिसे आत्मामात्र में लीनशरीरादि पर वस्तुओं को अपना न समझने और चिदानन्द स्वरूप आत्माको ही अपना समझनेके कारण स्वात्मज्ञ चैतन्यस्वरूप आत्मा 'अन्तरात्मा' है तथा यही अन्तरात्मा सम्पूर्ण कर्मरहित होजानेपर विशुद्ध आत्मा - 'परमात्मा' कहा गया है ।
भावार्थ - यद्यपि सामान्यदृष्टि से आत्मा एक है तथापि परिणामभेदसे वह तीन प्रकारका है। -१ बहिरात्मा, २ अन्तरात्मा और ३ परमात्मा । जब तक प्रत्येक संसारी जीवकी शरीरादि परपदार्थोंमें आत्मबुद्धि रहती है या आत्मा मिध्यात्वदशा में रहता है तब तक वह 'बहिरात्मा' कहलाता है | शरीरादिमें इस आत्मबुद्धिके त्याग हो जाने और मिध्यात्वके दूर होजानेपर जब आत्मा सम्यग्दृष्टि - आत्मज्ञानी होजाता है तब वह 'अन्तरात्मा' कहा जाता है । यह अन्तरात्मा भी तीन प्रकारका है - १ उत्तम अन्तरात्मा, २ मध्यम अन्तरात्मा और ३ जघन्य अन्तरात्मा । समस्त
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* 'तिपयारो सोप्पा परमंतरबाहिरो हु देहीणं ।
तत्थ परो भाइजर अंतोवाएण चयहि बहिरप्पा ||' - मोक्षप्रा० ४ + 'क्वाणि बाहिरप्पा अन्तरअप्पा हु अप्पसंकप्पो ।
कम्मलंकविमुको परमप्पा भरणा देवो ॥' - मोक्षप्रा० ५ 'बहिरात्मा शरीरादौ जातात्मभ्रान्तिरान्तरः । चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः परमात्माऽतिनिर्मलः ॥ - समाधितंत्र ५
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