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वीर सेवामन्दिर-ग्रन्थमाला
'समल' आत्माका स्वरूप
ये देहा देहभाजां गतिषु नरकतिर्यग्मनुष्यादिकासु स्वात्मांशानां स्वदेहाकृतिपरिणतिरित्यात्मपर्याय एव । द्रव्यात्मा चेत्यशुद्धो जिनवरगदितः कर्मसंयोगतो हि देशावस्थान्तरश्चेत्तदितरवपुषि स्याद्विवर्तान्तिरश्च ॥ ११ ॥
अर्थ- देहधारियोंको नरक, तिर्यंच और मनुष्य आदि गतियोंमें जो शरीर धारण ( प्राप्त) करना पड़ते हैं तथा उन शरीरोंके
कार जो आत्म-प्रदेशोंका परिणमन होता है, उन दोनोंको जिनेन्द्र भगवान्ने अशुद्ध आत्मपर्याय और अशुद्ध आत्मद्रव्य कहा है तथा इसीको 'समल' आत्मा - अशुद्ध जीवद्रव्य - कहा गया है । क्योंकि आत्मा कर्मका संयोग होनेके कारण ही देशान्तर, अवस्थान्तर और अन्य शरीर में प्रवेश करता है, अतः नारकादि शरीर और आत्मप्रदेशों का स्वदेहाकार परिणमन अशुद्ध आत्मपर्याय और अशुद्ध आत्मद्रव्य हैं और ये दोनों ही 'समल आत्मा हैं ।
भावार्थ - यहाँ जो नारकादिशरीरको 'समल' आत्मा कहा गया है वह व्यवहार नयसे कहा है। अशुद्ध निश्चयनयसे स्वदेहाकारपरिणत आत्मप्रदेश अशुद्ध आत्मद्रव्य हैं अतएव दोनों ही 'सम' आत्मा हैं । इन्हींको संसारी जीव कहते हैं ।
आत्मा अन्य प्रकार से तीन भेद और उनका स्वरूपएकोऽप्यात्माऽन्वयात्स्यात्परिणतिमयतो भावभेदास्त्रिधोक्कः पर्यायार्थान्नयाद्वै परसमयरतत्वाद्वहिजींवसंज्ञः । भेदज्ञानाचिदात्मा स्वसमयवपुषो निर्विकल्पात्समाधेः स्वात्मज्ञश्चान्तरात्मा विगतसकलकर्मा स चेत्स्याद्विशुद्धः || १२ ||
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