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________________ अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड विमल आत्मा (मुक्तजीव) का स्वरूप ... कर्मापाये चरमवपुषः किंचिदूनं शरीरं स्वात्पांशानां तदपि पुरुषाकारसंस्थानरूपम् । नित्यं पिण्डीभवनमिति वाऽकृत्रिमं मूर्तिवयं चित्पर्यायं विमलमिति चाभेद्यमेवान्वय्यङ्गम् ॥ १० ॥ अर्थ-कर्मके सर्वथा छूट जानेपर अन्तिम शरीरसे कुछ न्यून (कम) आत्मप्रदेशोंमें पुरुषाकाररूपसे स्थित, नित्य, पिण्डास्मक, अकृत्रिम, अमूर्तिक, अभेद्य और अन्वयी चित्पर्यायको 'विमल' आत्मा कहते हैं। ___भावार्थ-विमल आत्मा अथवा मुक्त जीव वे हैं जो कर्म रहित हैं, अपने अन्तिम शरीरसे कुछ कम पुरुषाकाररूपसे परिणत आत्मप्रदेशोंके शरीररूप हैं, शाश्वत हैं-फिर कभी संसारमें लौटकर वापिस नहीं आते हैं, आत्मगुणोंके पिण्डभूत हैं, जन्म-मरणरूप कृत्रिमतासे रहित हैं, परद्रव्य-पुद्गलसे सम्बन्ध छूट जानेके कारण पुद्गलकी स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णरूप मूर्तिसे रहित हैं-अमूर्तिक हैं। अतएव शस्त्रादिसे भेदन रहित हैं और अपने अनन्तज्ञानादिगुणोंमें स्थिर हैं, चेतनद्रव्यकी शुद्धपर्यायरूप हैं । यहां जो मुक्त जीवों को पर्यायरूप कहा है वह असङ्गत नहीं है, क्योंकि आत्माकी शुद्ध और अन्तिम सर्वोच्च अवस्था 'सिद्ध' पर्याय है जो सादि और अनन्त होती है और मुक्तजीव 'सिद्ध' कहे जाते हैं। फलितार्थ-जो आत्मा कर्मोसे छूट गया है और अपने स्वाभाविक चैतन्यादि गुणोंमें लीन है वह विमल आत्मा-मुक्तजीव है। * 'किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा'-द्रव्यसं० १४ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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