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________________ 4 वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला नयों द्वारा विभजनीय है-विभागपूर्वक जानने योग्य है, और विद्वानों द्वारा रोचनीय है प्राप्त करने के योग्य हैं। इसके सर्वज्ञदेवने दो भेद कहे हैं-(१) विमल आत्मा और (२) समल आत्मा । अथवा मुक्तजीव और संसारी जीव । भावार्थ-द्रव्योंमें दो तरहकी शक्तियाँ विद्यमान हैं-(१) भाववती और (२) क्रियावती । जीव और पुद्गल द्रव्यमें तो भाववती और क्रियावती दोनों शक्तियाँ वर्णित की गई हैं तथा शेष चार द्रव्यों (धर्म, अधर्म, आकाश और काल) में केवल भाववती शक्ति कही गई है। इन दोनों शक्तियोंको लेकर द्रव्योंमें परिणमन होता है। भाववती शक्तिके निमित्तसे तो शुद्ध ही परिणमन होता है और क्रियावती शक्तिसे अशुद्ध परिणमन होता है। अतः भाववती शक्तिके निमित्तसे होनेवाले परिणमनोंको शुद्धपर्याय कहते हैं और क्रियावती शक्तिके निमित्तसे होनेवाले परिणमन अशुद्धपर्यायें कही जाती हैं। यहाँ फलितार्थरूपमें यह कह देना अप्रासङ्गिक न होगा कि जीव और पुद्गलोंमें उभय शक्तियों के रहनेसे शुद्ध और अशुद्ध दोनों प्रकार की पर्यायें होती हैं। तथा शेष चार द्रव्योंमें केवल भाववती शक्तिके रहनेसे शुद्ध ही पर्याय होती हैं । जीवद्रव्यमें जो स्वप्रदेशोंमें परिणमन होता है वह उसकी शुद्ध पर्याय है और कर्म के संयोगसे अवस्थासे अवस्थान्तररूप जो परिणमन होता है वह अशुद्ध पर्याय है। यह जीवद्रव्य भिन्न भिन्न व्यवहारादिनयों द्वारा जानने के योग्य है । इसके दो भेद हैं(१) मुक्तजीव और (२) संसारीजीव । कर्मरहित जीवोंको मुक्तजीव अथवा विमल-आत्मा कहते हैं और कर्मसहित जीवोंको संसारीजीव अथवा समल-आत्मा कहते हैं। आगेके दो पद्योंमें इन दोनोंका स्वरूप प्रन्थकार स्वयं कहते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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