SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला चक्षुदृष्ट्यादि चैतद्धि समलपरिणामाश्च संख्यातिरिकाः सर्वे वैभाविकास्ते परिणतिवपुषो धर्मपर्यायसंज्ञाः । प्रत्यक्षादागमाद्वा ह्यनुमितिमतितो लक्षणाच्चेति सिद्धास्तत्सूक्ष्मान्तःप्रभेदाश्व गतसकलदृग्मोहभावविवेच्याः ॥८॥ -(युग्मम्) अर्थ-पर-परिणमनरूप इस संसार में कर्मसहित जीवोंके ज्ञानावरणादिकौके उदय, उपशम, क्षय और शान्ति अर्थात् क्षयोपशमसे यथायोग्य जो क्रोध, मानादि, उपशमसम्यक्त्व, क्षायोपशमिकसम्यक्त्व, उपशमचरित्रादि, बुद्धि, श्रुति आदि सम्यग्ज्ञान, मिथ्याज्ञान, मिथ्यदर्शन, मिथ्याचरित्र, गति और चक्षुर्दर्शन आदि भाव तथा और भी संख्यातीत मलिन परिणाम पैदा होते हैं-वे सभी वैभाविक परिणाम हैं। तथा धर्मपर्यायसंज्ञक हैं। ये सब ही प्रत्यक्षसे, आगमसे अथवा अनुमानसे और लक्षणोंसे सिद्ध हैं। इनके भी सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेद और भेदोंके भी भेद (प्रभेद) श्रीवीतरागदेवके द्वारा प्रतिपाद्य हैं:-श्री सर्वज्ञ भगवान् ही इनका विशेष निरूपण करने में समर्थ हैं। भावार्थ-जीव द्रव्यमें एक वैभाविक शक्ति है वह संसार अवस्थामें कर्मके निमित्तसे क्रोध, मान, माया आदि विभावरूप परिणमन कराती है और कर्मके छूट जानेपर वही वैभाविक शक्ति मुक्ति-अवस्थामें कंवलज्ञान आदि स्वभावरूप ही परिण मन कराती है। इस प्रकार जीवद्रव्यके दो तरह के भाव हैं १ वैभाविकभाव और २ स्वाभाविकभाव । यहाँ इन दो पद्योंमें 'सिद्धः' इति मुद्रितप्रतौ पाटः। * 'विवेच्यः' इति मुद्रितप्रती पाटः। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy