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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
मुक्ति अवस्था में जीवद्रव्यके स्वभाव-परिणमनकी सिद्धिमुक्त कर्मप्रमुक्तौ परिणमनमदः स्वात्मधर्मेषु शश्व -
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शैश्च स्वकीयागुरुलघुगुणतः स्वागमात्सिद्धसत्त्वात् । युक्तः शुद्धात्मनां हि प्रमितिविषयास्ते गुणानां स्वभावापर्याया: स्युश्च शुद्धा भवनविगमरूपास्तु वृद्धेश्व हानेः ॥६॥
अर्थ — द्रव्य और भाव कर्मोंसे सर्वथा छूटना मुक्ति है । मुक्ति में आत्मा आगम-प्रमाणसे सिद्ध अपने अनन्तानन्त गुरुलघुगुणोंके निमित्तसे अपने आत्मधर्मो स्वभाव पर्यायों में धर्माशोंसे स्वभाव पर्यायों के द्वारा सदा परिणमन करता है । युक्ति और प्रमाणसे यह बात प्रतीत होती है कि शुद्धात्माओं में और उनके गुणों में षट्स्थानपतित हानि और वृद्धि होनेसे उत्पाद तथा व्ययरूप शुद्ध ही स्वभाव-पर्यायें हुआ करती हैं ।
भावार्थ- मोक्ष अवस्था में जीवद्रव्य में स्वभाव पर्यायें - आत्मा के निजस्वभावरूप परिणमन होते हैं। वहाँ विभाव पर्यायें नहीं होतीं; क्योंकि विभावपर्यायोंको उत्पन्न करनेका कारण कर्म है। और कर्म मुक्ति में रहता नहीं । श्रतः मुक्ति में विभावयोंका बीज न होने से वहाँ उनकी सम्भावना नहीं है और इसलिये मोक्षमें मुक्तात्माओंका शुद्ध स्वभावरूपसे ही परिणमन होता है। जीवद्रव्यके वैभाविक भावोंका वर्णनसंसारेऽत्र प्रसिद्धे परममयवति प्राणिनां कर्मभाजी ज्ञानावृत्यादिकर्मोदयसमुपशमाभ्यां क्षयाच्छान्तितो वा । ये भावाः क्रोधमानादिममुपशममम्यक्त्ववृत्तादयो" हि बुद्धिश्रुत्यादिबोधाः कुमतिकुद्यगचारित्रगत्यादयश्च ॥ ७ ॥ * 'क्रोधमानादिसमुपशमाभ्यां सम्यक्त्वादयो' इत्यपि पाठः ।
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