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________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला सकल ( सदेह ) परमात्मा हो जाता है तब वह विशुद्ध आत्माउत्कृष्ट आत्मा कहा जाता है। तथा जब अवशेष चार अघातिया कर्मोके भी क्षीण हो जानेपर पाठगुणों या अनन्तगुणोंका स्वामी निकल (विदेह ) परमात्मा हो जाता है तब वह पूर्ण शुद्ध आत्मा अर्थात् सर्वोत्कृष्ट-आत्मा माना गया है, और ऐसी सर्वोत्कृष्ट आत्माओंको जैन-शाशनमें 'सिद्ध' परमेष्ठी कहा गया है। जीवद्रव्यके सामान्य और विशेषगुणोंका कथनसंख्यातीतप्रदेशेषु युगपदनिशं विष्नवंश्चिद्विशेषास्ते सामान्या विशेषाः परिणमनभवाऽनेकभेदप्रभेदाः। नित्यज्ञानादिमात्राश्चिदवगमकरा युक्तिमात्रप्रभिन्नाः श्रीसर्वज्ञेर्गुणास्ते समुदितवपुषो ह्यात्मतत्त्वस्य तत्त्वात् ॥५॥ अर्थ-अपने असंख्यात प्रदेशोंमें एक साथ निरन्तर व्याप्त रहनेवाले चैतन्य आदि जीवद्रव्यके सामान्य गुण हैं और यथार्थरूपसे आत्मतत्वके ज्ञायक-ज्ञान करानेवाले, परिणमनजन्य, अनेक भेदों और प्रभेदोंसे युक्त, कथनमात्रमें भिन्न, समूहरूप, नित्यज्ञानादि गुणोंको श्रीसर्वज्ञदेवने विशेषगुण कहा ___ भावार्थ-जीवद्रव्यके समस्तगुण दो भेदरूप हैं:-१ सामान्यगण, और २ विशेषगण । सामान्यगण वे हैं जो जीवद्रव्य के प्रत्येक प्रदेशमें---सर्वत्र व्याप्त होकर-रह रहे हैं और वे चेतना आदि हैं तथा विशेषगण वे हैं जो इसी चेतनाके परिणाम हैं और अनेक भेदरूप हैं। वे दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य आदि रूप हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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