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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
४५. है। बुद्धिमान पुरुषोंके लिये यह सूक्ष्म-तत्व समझना कठिन नहीं है। हाँ, मन्दबुद्धियोंको कठिन है। हो सकता है वे इस तत्वको न समझ सकें। पर यह जरूर है कि वे भी अभ्यास करते करते समझ सकते हैं और वस्तुस्वभावका निर्णय कर सकते हैं।
जीवद्रव्यका शुद्ध और अशुद्धरूपजीवद्रव्यं यथोक्तं विविधविधियुतं सर्वदेशेषु यावभावैः कर्मप्रजातैः परिणमति यदा शुद्धमेतन्न तावत् । भावापेक्षाविशुद्धो यदि खलु विगलेद्घातिकमप्रदेशः साक्षाद्रव्यं हि शुद्धं यदि कथमपि वाऽघातिकर्मापि नश्येत्॥४
अर्थ-जीवद्रव्य, जैसा कि कहा गया है, जबतक नानाविध कर्मोसे सहित है और कर्मजन्य पर्यायोंके द्वारा सब क्षेत्रों में परिरणमन करता है, तबतक यह शुद्ध नहीं है-अशुद्ध है। यदि घातिया-जीवके अनुजीवी गुणोंको घातनेवाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म आत्मासे सर्वथा अलग होजावं तो वह भावोंकी अपेक्षा विशुद्ध है और यदि किसी प्रकार अघातिया कर्म भी नाशको प्राप्त हो जावें तो साक्षाद्-पूर्णतः शुद्धद्रव्य है। इस तरह जीवद्रव्य शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकार अथवा शुद्ध, अशुद्ध और विशुद्ध के भेदसे तीन प्रकारका है।
भावार्थ--जीवद्रव्य के साथ जबतक कर्मरूपी बीज लगा हुआ है तबतक भवाङ्कर पैदा होता रहता है, और जन्म-मरण आदि रूपसे विभाव परिणमन होते रहते हैं और तभी तक जीव अशुद्ध है। परन्तु संयम, गुप्ति, समिति आदि संवर और निर्जराके द्वारा जब घातिया कर्मोके क्षीण होजानेपर अनन्तचतुष्टयका धनी
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