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________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला संसारी जीवोंमें 'जीवत्व' है और केवल भावप्राणोंको धारण करनेसे मुक्त जीवों में 'जीवपना' है। 'जीव' द्रव्यकी अपने ही प्रदेश, गुण और पर्यायोंसे सिद्धिसंख्यातीतप्रदेशास्तदनुगतगुणास्तद्भवाश्चापि भावाः एतद्रव्यं हि सर्व चिदभिदधिगमात्तन्तुशौक्ल्यादिपुजे। सर्वस्मिन्नेव बुद्धिः पट इति हि यथा जायते प्राणभाजां सूक्ष्म लक्ष्म प्रवेत्ति प्रवरमतियुतः कापि काले नचाज्ञः ॥३॥ अर्थ-जीवद्रव्यके असंख्यात प्रदेश, अन्वयी (साथ रहनेवाले) गुण और तद्भव (उनसे होनेवाले) भाव-पर्याय ये सब जीवद्रव्य हैं; क्योंकि इन प्रत्येकमें चेतनाकी ही अभेदरूपसे उपलब्धि होती है। जैसे तन्तु और शुक्लता आदिके समूहमें लोगोंको पटकी बुद्धि होती है । अतएव वे सब पट ही कहलाते हैं। प्रवरमतिबुद्धिमान पुरुष इनके सूक्ष्म लक्षणको-जीवद्रव्यके प्रदेश, गुण और उसकी पर्यायोंको 'जीवद्रव्य' कहनेके रहस्यको-समझ लेता है पर अज्ञ--मन्दबुद्धि पुरुष कभी नहीं जान पाता। ___ भावार्थ-जिस प्रकार तन्तु और शुक्लता आदि सब पट कहे जाते हैं अथवा द्रव्य, गुण और पर्याय ये सब ही जिस प्रकार सत् माने जाते हैं। सत् द्रव्य है सत् गुण है और सत् पर्याय है इस तरह सत तीनोंमें अविष्वक्भावसे रहता है। यदि केवल द्रव्य ही अथवा गुण या पर्याय ही सत् हो तो शेष असत्-खपुष्पवत् होजायेंगे। अतः द्रव्य, गुण और पर्याय तीनोंमें ही सत् समानरूपसे व्याप्त है और इसलिये तीनों सत् कहे जाते हैं। उसी प्रकार जीवद्रव्यके प्रदेश, उसके गुण और पर्यायें ये सब भी जीवद्रव्य हैं; क्योंकि इन तीनों ही में चैतन्यकी अभेदरूपसे उपलब्धि होती Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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