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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला तरह कभी भी शुद्ध न होवेंगे-अपनी स्वाभाविक अशुद्धतासे सदैव लिप्त रहेंगे-वे अभव्यजीव हैं । यह स्वभावगत चीज है और स्वभाव अतय होता है।
'जीव' का व्युत्पत्तिपूर्वक लक्षणप्राणैर्जीवति यो हि जीवितचरो जीविष्यतीह ध्र वं जीवः सिद्ध इतीह लक्षणबलात्प्राणास्तु सन्तानिनः । भाव-द्रव्य-विभेदतो हि बहुधा जंतो कथंचित्त्वतः साक्षात् शुद्धनयं प्रगृह्य विमला जीवस्य ते चेतना ॥२॥
अर्थ-जो ‘प्राणोंसे जी रहा है, जिया था और निश्चयसे जीवेगा' इस लक्षणके अनुसार वह 'जीव' नामका द्रव्य है। और ये प्राण सन्तानी–अन्वयी-जीव और पुद्गल द्रव्यके साथ अविध्वभाव (तादाम्य) सम्बन्ध रखनेवाले कहे गये हैं। ये प्राण द्रव्य
और भावके भेदसे अनेक प्रकारके-दो तरहके हैं। ये जीव द्रव्यसे कथंचित्-किसी एक अपेक्षासे-भिन्न और किसी एक अपेक्षासे अभिन्न हैं। शुद्ध निश्चयनयसे तो जीव द्रव्यकी निर्मल चेतना-ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग ही प्राण हैं। __ भावार्थ-व्यवहारनयसे इन्द्रिय, वल, आयु और श्वासोच्छ्वास इन यथासम्भव चार प्राणों द्वारा जो जीता है, पहले जिया था और आगे जीवेगा वह जीव पदार्थ है। निश्चयनयसे तो जिसके
x 'सम्यक्त्वादि-व्यक्तिभावाऽभावाभ्यां भव्याऽभव्यत्वमिति विकल्पः, कनकेतरपाषाणवत्। यथा कनकभावव्यक्तियोगमवाप्स्यति इति कनकपाषाण इत्युच्यते तदभावादन्धपाषाण इति । तथा सम्यक्त्वादिपर्यायव्यक्तियोगार्हो यः स भव्यः तद्विपरीतोऽभव्य इति'-राजवार्तिक ८-६ ।
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