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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड सिद्धि तत्तत् नयकी अपेक्षासे होती है। मैं अल्पज्ञ 'राजमल्ल' परम गुरु-श्रीअरहंत भगवान्के उपदेशानुसार उन सब द्रव्यों, गुणों और पर्यायोंका स्वरूप कथन करूँगा-अपनी बुद्धिके अनुसार उनका यथावत् निरूपण आगे करता हूँ।
भावार्थ-चैतन्यस्वरूप जीवद्रव्य है । यह प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाणोंसे जाना जाता है। तथा अनन्त पर्यायों और अनन्तगुणोंसे विशिष्ट होनेके कारण द्रव्य है । क्योंकि गुण और पर्यायवाले पदार्थको द्रव्य कहा गया है |
और पर्याय चूंकि शुद्ध और अशुद्ध दो प्रकारकी हैं, इसलिये जीव भी दो तरहके हैं -शुद्ध जीव और अशुद्ध जीव । अथवा भव्यजीव और अभव्यजीव । जो जीव रत्नत्रय-प्राप्तिके योग्य हों-आगामीकालमें सम्यग्दर्शनादि परिणामसे युक्त होंगे, वे भव्यजीव हैं-शुद्ध जीव हैं और जो रत्नत्रय-प्राप्तिके योग्य न हों-सम्यग्दर्शनादिको प्राप्त न कर सके वे अभव्यजीव हैं-- अशुद्ध जीव हैं। भव्य और अभव्य ये दो तरहके जीव स्वभावसे ही हैं। । उदाहरणके द्वारा इनको इस प्रकार समझिये कि, कोई स्वर्णपाषाण ऐसा होता है जो तापन, छेदन, ताडन आदि क्रियाओंके करनेसे शुद्ध हो जाता है, पर अन्धपाषाण कितने ही कारणोंके मिल जानेपर भी पाषाण ही रहता है-शुद्ध होता ही नहीं। इसी तरह जो जीव, सम्यक्त्वादिको प्राप्त करके शुद्ध हो सकते हैं उन्हें भव्य-जीव कहा है और जो अंधपाषाणकी * 'गुणपर्ययवद्र्व्य म्'-तत्त्वार्थ ० ५-३८ ।
'जीवास्ते शुद्ययशुद्धितः'-प्राप्तमी० का ६६ । * 'शुद्धयशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्तिवत् । साद्यनादी तयोर्व्यक्ती स्वभावोऽतर्कगोचरः ॥' -अाप्तमी० १०० ।
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