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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला
और पटादि परद्रव्यचतुष्टयसे वह घटरूप नहीं है। यदि घटको स्वद्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षा सद्प न माना जाय तो आकाशकुसुमकी तरह उसका अभाव होजावेगा । और परद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा यदि घटको असऐप न माना जाय तो घटको भी पटादिरूप कहने में कोई बाधा नहीं आएगी, और इससे सवव्यवहारका लोप होजायगा। इससे यह निश्चित है कि प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टयको अपेक्षा सत् है और परचतुष्टयकी अपेक्षा असत् है । ऊपर बताये हुए सत्व और असत्वरूप दोनों धर्म प्रत्येक वस्तुमें एक साथ पाये जाते हैं, वे उससे सर्वथा भिन्न नहीं हैं। यदि इन्हें सर्वथा भिन्न माना जाय तो वस्तुके स्वरूपको प्रतिष्ठा नहीं बन सकती-सत्व और असत्वमें परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके आप्त-मीमांसागत वाक्योंसे प्रकट है।
द्रव्यमें एकत्व और अनेकत्वकी सिद्धिएक पर्ययजातैः समप्रदेशरभेदतो द्रव्यम् । गुणि-गुणभेदान्नियमादनेकमपि न हि विरुद्धय त ॥२४॥
अर्थ-द्रव्य अपनी पर्यायों और समप्रदेशोंसे अभिन्न होनेके कारण एक है और गुण-गुणीका भेद होनेसे निश्चयसे अनेक भी हैं । द्रव्यको यह एकानेकता विरुद्ध नहीं है।
भावार्थ-द्रव्यके स्वरूपका जब हम नय-दृष्टिसे विचार करते हैं तो द्रव्य एक और अनेक दोनोंरूप प्रसिद्ध होता है; क्योंकि * अस्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकर्मिणि । विशेषणत्वात्साधर्म्य यथा भेदविवक्षया ॥१७॥ नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मिणि । विशेषणत्वावधयं यथाऽभेदविवक्षया ॥१८॥
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