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अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड
भावार्थ-कर्म के दो भेद हैं-पुण्यकर्म और पापकर्म । मन, वचन और कायकी श्रद्धापूर्वक पूजा, दान, शील संयम और तपश्चरणादिरूप शुभ क्रियाओंमें प्रवृत्ति करनेसे पुण्यकर्मका अर्जन होता है और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, लोभ, ईर्ष्या
और असूयादिरूप मन, वचन तथा कायकी अशुभ-प्रवृत्तिसे पापकर्म होता है । पुण्य तथा पाप आस्रव और बन्ध दोनों ही रूप होते हैं, क्योंकि शुभ परिणामोंसे पुण्यास्रव और पुण्यबंध होता है और अशुभ परिणामोंसे पापास्रव तथा पापबंध होता है। इसीसे पुण्य और पापका अन्तर्भाव आस्रव और बन्ध में किया गया है। यही कारण है कि तत्त्वदर्शी आचार्य महोदयने इनका सात तत्त्वोंसे भिन्न वर्णन नहीं किया।
विशेषार्थ-यहाँ इस शंकाका समाधान किया गया है कि पुण्य और पाप भी अलग तत्त्व हैं उन्हें जीवादि सात तत्त्वोंके साथ क्यों नहीं गिनाया ? ग्रन्थकारने इसका उत्तर संक्षेप में और वह भी बड़े स्पष्ट शब्दोंमें यह दिया है कि पुण्य और पाप वस्तुतः प्रथक् तत्त्व नहीं हैं, उनका आस्रव और बन्ध तत्त्वमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। मालूम होता है पं० राजमल्लजीने आचार्य उमास्वातिके उस सूत्रको लक्ष्यमें रखकर ही यह शंका और समाधान किया है जिसमें आचार्य महाराजने उल्लिखित जीवादि सात तत्त्वोंका ही कथन किया है। इस सूत्रकी टीका करनेवाले प्राचार्य पूज्यपादने भी इस शंका और समाधानको अपनी सर्वार्थसिद्धिमें स्थान दिया है।
* देखो, तत्त्वार्थसूत्र० १-४ । 1 'इह पुण्यपापग्रहणं च कर्तव्यं, नव पदार्था इत्यन्यैरप्युक्तत्वात् ।
न कर्तव्यम् , तयोरास्रवे बन्धे चान्तर्भावात् ।' –सर्वार्थसि० १.४
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