SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रध्यात्म-कमल-मार्तण्ड १७ व्रतधारणकी इच्छा रखते हुए भी चारित्रमोहके उदयसे जो लेशमात्र भी व्रतको धारण नहीं कर सकते, ऐसे उन सम्यग्दृष्टि जीवोंके भी ज्ञानचेतना होती है। और चारित्रमोहादिक कर्मोंका उदयरहनेसे कर्मचेतना भी उनके पाई जाती है। इसीसे सम्यग्दृष्टि दोनों चेतनाओंका अस्तित्व माना जाता है । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें अभेदकी आशङ्का और उसका समाधान को भित्संविद्दशो ननु समसमये संभवत्सत्त्वत्तः स्यादेकं लक्ष्म द्वयोर्वा तदखिलसमयानां च निर्णीतिरेव । द्वाभ्यामेवाविशेषादिति मतिरिह चेन्नैव शक्तिद्वयात्स्याःसंविन्मात्रे हि बोधो रुचिरतिविमला तत्र सा सद्द्दगेव ॥ १२ ॥ शङ्का - सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनमें क्या भेद है ? क्योंकि ये दोनों समकाल में एक ही साथ उत्पन्न होते हैं और दोनोंका एक ही लक्षण है। जिन पदार्थोका एक ही लक्षण हो और जो एक ही समय मे पैदा होते हों वे पदार्थ एक माने जाते हैं, ऐसा खिल सिद्धान्तों अथवा सम्प्रदायों द्वारा निर्णीत ही है । अतएव इन दोनों को अभिन्न ही मानना चाहिये ? समाधान - ऐसा मानना ठीक नहीं है; क्योंकि ज्ञान और दर्शन ये जुदी जुदी दो शक्तियाँ हैं । संवित्ति सामान्य के होनेपर ही तत्त्व बोध होता है, तत्त्व बोध होनेपर अत्यन्त निर्मल रुचिरूप श्रद्धा होती है और वह श्रद्धा ही सम्यक्त्व है । अतः सम्यग्ज्ञान जहां तत्त्व - बोधरूप है वहां सम्यग्दर्शन तत्त्व- रूचि रूप है, इसलिये दोनों अभिन्न नहीं हैं - भिन्न भिन्न ही हैं । 'शक्तिर्द्वयात्' पाठः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy