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वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला जीवोंके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और मोहनीयकर्मका विशेष उदय पाया जाता है और कर्मोदयसे जिनकी चेतना मलिन है-रागद्वेषादिसे आच्छादित है-वीर्यांतरायकर्मके किंचित् क्षयोपशमसे इष्ट अनिष्टरूप कार्य करनेकी जिन्हें कुछ सामर्थ्य प्राप्त हो गई है
और इसलिए जो सुख-दुःखरूप कर्मफल के भोक्ता हैं, ऐसे दोइन्द्रियादिक जीवोंके मुख्यतया कर्मचेतना होती है। ___जिन जीवोंका मोहरूपी कलंक धुल गया है, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वोर्यांतराय कर्म के अशेष क्षयसे जिन्हें अनन्तज्ञानादिकगणोंकी प्राप्ति होगई है, जो कर्म और उनके फल भोगनेमें विकल्प-रहित हैं, आत्मिक पराधीनतासे रहित स्वाभाविक अनाकुलतालक्षणरूप सुखका सदा आस्वादन करते हैं। ऐसे जीव केवल ज्ञानचेतनाका ही अनुभव करते हैं। ___ परन्तु जिन जीवोंके सिर्फ दर्शनमोहका ही उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम होता है, जो तत्वाथके श्रद्धानी हैं अथवा दशेनमोहके अभावसे जिनकी दृष्टि सूक्ष्मार्थिनी हो गई है--सूक्ष्म पदार्थका अवलोकन करने लगी है-और जो स्वानुभव के रससे परिपूर्ण हैं,
* 'अन्ये तु प्रकृष्टतरमोहमलीमसेनापि प्रकृष्टज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन मनाग्वीर्यान्तरायक्षयोपशमासादितकार्यकारणसामर्थ्या: सुखदुःखानुरूपकर्मफलानुभवनसंबलितमपि कार्यमेव प्राधान्येन चेतयंते ।'
-पंचास्ति० तत्त्व० टी० ३८ 'अन्यतरे तु प्रक्षालितसकलमोहकलंकेन समुच्छिन्नकृत्स्नज्ञानावरणतयाऽत्यंतमुन्मुद्रितममस्तानुभावेन चेतकस्वभावेन समस्तवीर्यातरायक्षयासादितानंतवीय अपि निर्जीणकर्मफलत्वादत्यंतकृतकृत्यत्वाच्च स्वतोऽव्यतिरिक्तं स्वाभाविकं सुग्वं ज्ञानमेव चेतयंत इति ।'
--पंचास्ति तत्व० टी० ३८
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