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________________ वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला ____भावार्थ-यद्यपि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान समकाल में ही होते हैं जब दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे आत्मामें सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है उसी समय ही जीवके पहलेसे विद्यमान मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान दोनों ही सम्यकरूपसे परिणमन करते हैं अर्थात् वे अपनी मिथ्याज्ञानरूप पूर्व पर्यायका परित्याग कर मतिज्ञान और श्रुतज्ञानरूप सम्यग्ज्ञानपर्यायसे युक्त होते हैं तथापि दोनों में कार्य-कारण-भाव होने तथा भिन्न लक्षण होनेसे भिन्नता है। जैसे मेघपटलके विनाश होनेपर सूर्यके प्रताप और प्रकाश दोनोंकी एक साथही अभिव्यक्ति होती है परन्तु वे दोनों स्वरूपतः भिन्न भिन्न ही हैं-एक नहीं हो सकते। ठीक उसी तरह सम्यग्दर्शनके साथ सम्य ज्ञानके होनेपर भी वे दोनों एक नहीं हो सकते; क्योंकि सम्यकदर्शन तो कारण है और सम्यग्ज्ञान कार्य है इतना ही नहीं; दोनोंके लक्षण भी भिन्न भिन्न हैं । सम्यग्दर्शनका लक्षण तो रूचि, प्रतीति अथवा निर्मल श्रद्धा है और सम्यग्ज्ञानका लक्षण तत्त्व-बोध है-जीवादि पदार्थोका यथार्थ परिज्ञान है । अतः लक्षणोंकी भिन्नता भी दोनोंकी एकताकी बाधक है । इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनों भिन्न हैं। * 'यदाऽस्य दर्शनमोहस्योपशमात्क्षयात्क्षयोपशमादा अात्मा सम्यग्दर्शनपर्यायेणाविभवति, तदैव तस्य मत्यज्ञानश्रताज्ञाननिवृत्तिपूर्वक मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं चाविर्भवति । धनपटल विगगे सवितुः प्रताप प्रकाशाभिव्यक्तिवत् ।' -सर्वार्थसिद्धिः १-१ + 'पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनापि बोधस्य । लक्षणभेदेन यता नानात्वं संभवत्यनयोः ।। ३२ ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003836
Book TitleAdhyatma Kamal Marttand
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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