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________________ ३६ पद्मश्रीचरित दुःखनो भरेलो तरी न शके वो (?) करंडियो ज छे. पतिए तजी दीधेली, चिरहे सुकाएली, पर पुरुषनो विचार पण न करती एवी मारु लावण्यथी उजळु यौवन निष्फळ छे-जेम वनमां रहेली मालतीनु कुसुम निरर्थक ले तेम." कडवक ४ ए अरसामा विमल शी ला नामे एक जिनधर्ममा कुशल गणिनी त्यां आवी. तपश्चर्यामां रत एवी साध्वीओ जेनी साथे हती, श्रुतदेवतानी जेम जे विद्यायुक्त हती, जेणे जैनागमोनो समुद्र पार को हतो, जेणे अनेक भव्यरूपी कमळोनो प्रतिबोध (१ ज्ञानजागृति, २ चिकास) को हतो, सौम्यताए करीने जेणे चंद्रकांतिने पण जीती हती, जे मूर्तिमती उपशमश्री हती, जेम विंध्याटवी मद झरता गजोवाळी तेम जे मद ने चिकार रहित हती, वर्षानी लक्ष्मीनी जेम जे संतापहारक (१. तापने दूर करनार, २. संतापने दूर करनार) हती, वडवानळनी जेम जेणे जलधि(१. समुद्र, २. जड बुद्धि)ने शोषी लीधी हती, सूर्यप्रभा जेम दोषा(रात्री)नो नाश करे, तेम जेणे दोषनो नाश कर्यो हतो, हारमाळा जेम निर्मळ अने सुंदर (?) होय, तेम जेनुं चित्त शुभ अने निर्मळ हतुं, जेना हाथमां कुंदपुष्प अने चंद्ग समान श्वेत रजोहर' हतुं, विश्वासपूर्वक जे एक युग सुधी गजर नाखीने (चालती), जे सम्यक्त्व, ज्ञान ने दर्शन युक्त हनी, जेणे विषयो अने कुधर्मनो संग दूरथी ज तजी दीधो हतो. वसंतऋतुमां कोयल आम्रवृक्षने जुवे तेम ते(गणिनी)ने जोईने शंखनी पुत्री आनंदित थई. वणा संतापर्नु शमन करवा वाळी (ते) गणिनीने लेवा ते ऊठी, आसन आप्यु (अने) ते बेठी. आनंदथी टपकतां आंसु साथे तेने वंदन कर्या एटले गणिनीए तेने धर्मलाभ दीधो. शुभभावे गणिनीने वंदीने, करकमळनी अंजलि मस्तक पर धरीने, विकसेलां नयनवाला मुखकमल साथे पद्मश्री (तेनी) आगळ बेठी. कड व क ५ विनयथी नमेली महासती पम श्रीने दुबळी जोईने गणिनी आश्वासन आपवा लागी, "हे धर्मशील स्त्री, पतिए तजेली चक्रवाकीनी जेम तुं साव निस्तेज दीसे छे. मोढं म्लान छे, तेनुं तेज देखातुं नथी-जाणे के राहु चंद्रने गळी गयो न होय!" (पद्मश्री बोली,) "हे भगवती, है तमने ढूंकमां ज कहुं. मारा पति वणवांके माराधी विरक्त थया अमारो प्रेमबंध सो टुकड़ा थई तूटी गयो, मोतीनी जेम मारु भाग्य फूट्युं नहीं (?). बीजी कोईने परणीने ते सुखे रहे छे ने स्वपनामांए मारी वात पण पूछता नथी. (मारु) कुळ निष्कलंक छे; गुणथी निर्मळ (मारु) शील छे; यौवन दुर्जय छ; अनंग बहु बळियो छे; चंचळ मनमर्कट स्थिर रहेतो नथी; (ते तो) विषयरूपी महावनमा भमवा ईच्छे छे. प्रिय साथे भोग विनाना अने विलासरहित दिवसो निर. र्थक (जाय) छे. (आवं) असह्य दुर्भाग्य पामीने मारे अभागणीए जीवीने शुं करवु छे ? तो हुँ मारे करवानुं काम हाथ धरुं. बापुजीने लांछन तो अवश्य नहीं लगाईं: आवो विचार करीने ज्यां हुँ मरणने ईच्छती हती, त्यां, भगवती, एकाएक तमने जोयां. भगवती, तमारं मुखकमळ जोईने में मरवानुं छोडी दीधुं. मोटा शोकसमुद्रमा डुबेली हुँ अनाथर्नु तमे ज शरण छो." कड व क ६ - एटले गणिनी मधुरवाणीथी बोली, "सुंदरी, ध्यान दई मारां वचन सांभळ. अनादि काळथी कर्म बांधीने आ जीव, जिनेन्द्रनो धर्म न प्राप्त थतां, नारक अने तिर्यंच योनिमां अनंत काळ सुधी अतिशय दुःख भोगवे छे. तें अन्य भवमां धर्म कर्यो हतो, तेथी, हे सुंदरी, तुं मनुष्यजन्म पामी,-शुभ लक्षणोवाळु शरीर मेळव्यु,......अने शोकरहित, मनोहर कामभोग प्राप्त थाय तेवु यौवन मेळव्यु. (पण) तें कोईकना भोगमां अंतराय पाड्यो हतो, तेथी एका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002783
Book TitlePaumsiri Chariu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhahil Kavi, Jinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1948
Total Pages124
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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