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चतुर्थ संधि एक वांधो पड्यो (?), जेथी तुं निर्दोष अने धर्मशील (होवा छतां अने तारो) पति (तारा प्रत्ये) सेहवाळो (होवा छतां), ते विरक्त थयो. केटलोये वखत देवो अने मनुष्यो बच्चे भोग भोगव्या छतो ये जीवने संतोष नथी भळतो. आरंभे रसिक पण अंते विरस एवा विषयोने हे मुग्धा, तुं किपाक फऊ जेवा जाण. हे श्राविका, तें क्यांये आ सांभळ्युं नथी के आपधातमां बहु जातनां पाप छे ? विषयमां भटकता तारा मननो निरोध कर, जैन धर्म पर चित्त धोंटाड. संयममा मन निश्चल राखीने भावथी पांच महाव्रत ले जेथी तुं ए स्थान पामे के ज्यां न होय जन्म ने न होय मरण."
कडवक ७ शंख, माता अने बांधवोनी रजा लईने, लोकोने पुष्कळ धननुं दान करीने, जैन मंदिरोमां महोत्सव करावीने, गुनियरोने दान दईने पभ श्री ए मेहपर्वत समान दुर्वह पांच महावत लीधां. तेणे थोडा ज बखतमा अग्यार अंग चाळा कठिन आगम, व्याकरण, छंद, ज्योतिष, निमित्तशास्त्र (वगेरे) विविध शास्त्रो अने महाग्रंथोनुं ज्ञान मेव्यु. नित्य चित्तथी भावना भावीने, दिनप्रतिदिन विधविध तपश्चर्या करवा लागी. स्वाध्याय (अने) ध्यानने अनुलक्षीने उद्यम करवा लागी. अतिशय विनय, क्षमा ते दया आचरवा लागी. गणिनीनी साथे उत्तम गामोमां विहार करती एवी ते फरतां फरतां साकेत नगरी आवी. विहरतां विहरतां पभ श्री आर्या पेली कांति म ती अने की र्ति म ती नामक स्त्रीओने घरे गई. तेओ पण आदरथी ऊठी, विनयथी नमस्कार करीने ( पछी) बेठी. पोतानो जन्म सफळ थयेलो मानती एवी ते बनेए हर्षयुक्त मने खीर, खांड, घी, चटणी (वगेरे) भोजननी भिक्षा दीधी.
कड व क८ (ते बोली,) "हे भगवती, अमारा पर कृपा करो. दररोज आ घरे आवजो. अमो श्राविकाओने नीति ने धर्मनो उपदेश करजो (?)." ते दररोज आवती अने धर्मनो उपदेश करती. तेओ (पण बीजु) काम छोडी दईने सांभळती. स्तुति, स्तोन्नो ने देववंदननो पाठ करती. पचोदुम्बरी, मध ने मद्यनो त्याग करती. हवे एक दिवसे जेना पापनो पुंज धोवाइ गयो छे, तेवी पद्मश्री आर्या विहार करती ( त्यां) आवी, (त्यारे ) कांति म ती चंद्रकिरण जेवो झळहळतो अने चार समुद्रना साररूप (मोतीनो बनेलो पोतानो) तूटेलो हार परोवती हती. कां ति म ती हार नीचे मूकीने, वंदन करीने आहार (लाववा) माटे घरमा गई. (आ वखते, पूर्व भवमां) यशोदा पर जे आळ नाख्यु हतुं ते (कर्मना) उदयथी क्षेत्रपाल पद्मश्री ने जोईने खूब रूख्यो (अने) ए दुष्ट, पापिष्ट आम विचारवा लाग्यो, “हुं मोर (?) रूपे नीचे उतरीने हार हरी लडं, जेथी मा आर्याने माणसो चोरटी कहे.” (आ) व्यंतरदेवनी मायाथी प्राणित थईने चित्रमा रहेलो मोर ऊठयो भने तरत ज भोंय पर रहीने मनोहर कलाप साथे नृत्य करवा लाग्यो.
कड व क ९ जेनो कंठ भांगेला इंद्रनील मणि जेवो श्याम हतो तेवा (मोरना) मस्तक पर चंद्रक चळकता हता-नीलकंठना मस्तक पर चळकता होय तेम; जे पीछांओ धुणावतो हतो, ललित कांतिवाळो हतो अने जेनो कलाप, सुंदर अने दीर्घ हतो तेवा ( मोरे) ते पुष्कळ चळकतां ने चंचळ मणिकिरणो वाळो हार जोयो ने ते बधोये ते गळी गयो. (पछी) तरत ज (पाछो) ऊडीने तेनी ते ज जगाए ते रही गयो. पद्म श्री ना मनमां तो विस्मय मातो न हतो. (आकुं) अतिशय मोटुं आश्चर्य कडं जाय तेवू न हतुं–ने कहेतांए कोइने श्रद्धा से तेम न हतुं. (ते दरमियान) कां तिमती घरमांथी लाडुनो घणो जबरो थाळ भरीने बहार आवी. बहु भक्तिथी तेणे ते बधाये धर्या, (पण) पद्म श्री आर्याए केटलाक ज लीधा. वंदना करीने वळावी एटले (ते) विहारे गई
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