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(९२) विवेकचूडामणिः । करती है । अर्थात् मुमुक्षु भिक्षुको अपनी अभीष्टसिद्धिके निमित्त चित्तका निरोध करना चाहिये ॥ ३४२ ॥
आरूढशक्तेरहमो विनाशः कर्तुं न शक्यः सहसापि पण्डितैः । ये निर्विकल्पाख्यसमाधिनिश्चलास्तानन्तरानन्तभवा हि वासनाः ॥३४३॥
अहंकारकी पूर्वोक्तशक्ति जबतक बढी रहतीहै तबतक अहंकारका हठात्कारसे नाशकरनेमें कोई पण्डित समर्थ नहीं होसकते जो विद्वान निर्विकल्पक समाधिसे चित्तको स्थिरकरतेहैं उन विद्वानोंको किसीतर- . हकी वासना आत्मलाभ होने में प्रतिबन्धक नहीं होती ॥ ३४३ ॥
अहंबुद्धयैव मोहिन्या योजयित्वा वृतेर्बलात् । विक्षेपशक्तिः पुरुषं विक्षेपयति तद्गुणैः ॥३४४ ॥ मोह देनेवाली जो अहंबुद्धिहै उसके साथ आवरण शक्तिके हठात्कारसे संयोगकराय विक्षेपशक्ति पुरुषके विक्षेपको प्राप्तकरदेती है ॥ ३४४ ।। विक्षेपशक्तिविजयो विषमो विधातुं निःशेषमा वरणशक्तिनिवृत्त्यभावे । इन्दृश्ययोः स्फुटपयो जलवद्विभागे नश्येत्तदा वरणमात्मनि च स्वभावात् ॥ ३४५॥ निःशेष आवरण शक्तिको निवृत्त कियेविना विक्षेपशक्तिका विजय करना बहुत कठिन है जैसे द्रष्टा और दृश्य इन दोनोंको स्पष्ट दुग्धसे जलका विभागके नाई विभाग किया जाय तो स्वभावहीसे आवरणशक्ति आत्मामें लीन होजायगी अभिप्राय यह कि, जैसे दूधमें जलमिलाने पर दुग्धसे अलग जल नहीं दीखता तैसे द्रष्टा जो ईश्वर है
और दृश्य जो जगत् है इन दोनोंका विभाग अज्ञानतासे नहीं मालूम होता यदि विचारनेसे द्रष्टादृश्यका विभाग किया जाय तो आवरण शक्ति आपही आत्मामें नष्ट होजायगी ॥ ३४५ ॥