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भाषाटीकासमेतः। (९१) सर्वात्मना बन्धविमुक्तिहेतुः सर्वात्मभावान्न परोऽस्ति कश्चित् । दृश्याग्रहे सत्युपपद्यतेऽसौ सर्वात्मभावोऽस्य सदात्मनिष्ठया ॥ ३४० ॥ सब वस्तुओंका बन्धसे सदा विमुक्तहोनेके कारण सर्वात्मभावको प्राप्त होनेसे अधिक दूसरा नहीं है अर्थात् । स्थावर जंगम जितने पदार्थ है उन सब पदार्थोमें आत्मबुद्धि होनेसे सम्पूर्ण बन्धसे मनुष्य मुक्त होजाता है । ) जो देहआदि जगत् है उसमें मुमुक्षुपुरुषकी त्यागबुद्धि होना यही सर्वात्मभावहोनेका अर्थात् सब वस्तुओंमें आत्मबुद्धि होनेका कारण है ॥ ३४० ॥ .
दृश्यस्याग्रहणं कथं नु घटते देहात्मना तिष्ठतो बाह्यार्थानुभवप्रसक्तमनसस्तत्तत्कियां कुर्वतः । संन्यस्ताखिलधर्गकर्मविषयनित्यात्मनिष्ठापरैस्तत्त्वज्ञैः करणीयमात्मनि सदानन्देच्छुभिः सर्वतः ॥ ३४१॥
जो मनुष्य देहमें आत्मबुद्धि स्थिर किये है और बाह्य विषयके स्मरणमें सदा मनको लगाकर बाह्यवस्तुओंकी क्रियामें फंसा है उस पुरुषके देहआदिमें त्यागबुद्रि कैसे होगी । इसलिये सम्पूर्ण धर्मकर्म विषयको त्याग कर और नित्य आत्मामें भक्तिकर सदा आनन्दके इच्छा करनेवाला तत्त्वज्ञ पुरुषोंको यत्नसे देहआदिके आग्रहको त्याग करना उचित है ॥ ३४१ ॥
सर्वात्मसिद्धये भिक्षोः कृतश्रवणकर्मणः । समाधि विदधात्येषा शान्तो दान्त इति श्रुतिः३४२ श्रवण मनन निदिध्यासन आदि कर्मके करनेवाला संन्यासीको सर्वात्मसिद्धि के लिये 'शान्तो दान्त यह श्रुति समाधिका विधान