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(९०) विवेकचूडामणिः।
परमार्थदर्शी । जानन हि कुर्यादसतोऽवलम्ब स्वपातहेतोः शिशुवन्मुमुक्षुः ॥ ३३७ ॥
परमात्मवस्तुका द्रष्टा और श्रुतियोंका प्रमाण जाननेवाला सत -असत् वस्तुका विवेकी कौन ऐसा समीचीन विद्वान होगा जो आत्मवस्तुको जानता हुआ फिर परमपदसे पात होनेका कारण असत् वस्तुओंका ग्रहण करेगा जैसे अज्ञान बालक अपनी अज्ञानतासे ऐसी कोई वस्तुका अवलम्बन करता है जिसके ग्रहण करनेसे वह बालक जमीनमें गिरता है ॥ ३३७ ॥
देहादिसंसक्तिमतो न मुक्तिर्मुक्तस्य देहायभिमत्यभावः । सुप्तस्य नो जागरणं न जाग्रतः स्वप्नस्तयोभिन्नगुणाश्रयत्वात् ॥ ३३८ ॥ जैसे स्वप्नावस्थामें प्राप्त मनुष्योंमें जाग्रत् अवस्थाका अभाव होताहै और जाग्रत् अवस्थाको प्राप्त मनुष्यों में स्वप्नावस्थाका अभाव रहताहै क्योंकि ये दोनों अवस्था भिन्न भिन्न गुणको आश्रयण करती है तैसे जो मनुष्य देहआदि अनित्यवस्तुओंमें आसक्त रहतेहैं वह मोक्षके भागी नहीं होते और जो मुक्त होगये उनको देहआदिका फिर कभी अभिमान नहीं होता ॥ ३३८ ॥
अन्तर्बहिः स्वं स्थिरजङ्गमेषु ज्ञात्वात्मनाधारतया विलोक्य। त्यक्ताखिलोपाधिरखण्डरूपः पूर्णात्मना यः स्थित एव मुक्तः ॥ ३३९ ॥
वृक्षआदि जितने स्थावर हैं और मनुष्यआदि जितने जंगम हैं उन सबमें बाहर और भीतर सबका आधारभूत आत्मरूपसे अपनेकों देखकर संपूर्ण उपाधिसे छूटकर अखण्डरूप परिपूर्ण होकर जो मनुष्य स्थित है वही मनुष्य मुक्त कहा जाताहै ॥ ३३९ ॥