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________________ भाषाटीकासमेतः । यतिरसदनुसन्धि बन्धहेतुं विहाय स्वयमयमहमस्मीत्यात्मदृष्टयैव तिष्ठेत् । सुखयति ननु निष्ठा ब्रह्मणि स्वानुभूत्या हरति परमविद्या कार्य्यदुःखं प्रतीतम् ||३३४ || विरक्त होकर यति अनित्य वस्तुओंके अनुसंधानको त्यागकर साक्षात् ब्रह्मस्वरूप यह मैं ही हूं ऐसा अपने में आत्मदृष्टिसे स्थिर रहे पश्चात् अपने अनुभवसे ब्रह्ममें जो निष्ठा होती है वही ब्रह्मनिष्ठा प्रतीयमान संसारी दुःखको नाशकर परमसुख को देती है ॥ ३३४ ॥ बाह्यानुसंधिः परिवर्द्धयेत्फलं दुर्वासनामेव ततस्ततोऽधिकाम् । ज्ञात्वा विवेकैः परिहृत्य बाह्यं स्वात्मानुसन्धि विदधीत नित्यम् ॥ ३३५ ॥ बाह्यवस्तुओं का जो अनुसन्धान है अर्थात् चिन्ता है वही चिन्ता अधिक से अधिक दुर्वासनारूप फलको बढाती है । यदि विवेकसे ज्ञान उत्पादनकर बाह्यवस्तुकी चिन्ताका त्याग किया जाय तो वही विवेक आत्मवस्तु के अनुभवको सदा विधान करता है इसलिये बाह्यवस्तुकी चिन्ता छोडकर आत्मचिन्ता करना उचित है ॥ ३३५ ॥ बाह्ये निषिद्धे मनसः प्रसन्नता मनःप्रसादे परमात्मदर्शनम् । तस्मिन्सुदृष्टे भवबन्धनाशो । बहिर्निरोधः पदवी विमुक्तेः ॥ ३३६ ॥ बाह्यवस्तुओं का निषेध होनेसे मनकी प्रसन्नता होती है मन प्रसन्न होने से परमात्माका साक्षात्कार होता है परमात्माका दर्शन होने से संसार रूप बन्धका नाश होता है इसलिये बाह्यवस्तुओंका जो निरोध है सोई मुक्तिका स्थान है ॥ ३३६ ॥ कः पण्डितः सन्सदसद्विवेकी श्रुतिप्रमाणः (८९)
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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