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________________ (८६) विवेकचूडामणि हे विद्वन् ब्रह्म विचारमें प्रमाद कभी न करना क्योंकि ब्रह्मपुत्रनारदादि ऋषीश्वरोंने प्रमादही को मृत्यु कहा है ॥ ३२२ ॥ न प्रमादादनर्थोऽन्यो ज्ञानिनः स्वस्वरूपतः। ततो मोहस्ततोऽहंधीस्ततो बन्धस्ततो व्यथा ३२३॥ अपने स्वरूपसे प्रमाद करना अर्थात् अपना रूप भूलजाना इससे अन्य ज्ञान के लिये दूसरा अनर्थ नहीं है । क्योंकि अपना रूपको भूलनेसे मोह होता है मोहसे अहंबुद्धि होती है अहंबुद्धि होनेसे संसारका बन्ध प्राप्त होता है बन्ध होनेसे क्लेश होता है ॥ ३२३ ॥ विषयाभिमुखं दृष्ट्वा विद्वांसमपि विस्मृतिः । विक्षेपयति धीदोषर्योषा जारमिव प्रियम् ॥ ३२४ ॥ जैसे अपने तरफ साकांश दृष्टि देताहुआ जार पुरुषको देखकर कुलटा स्त्री अपने कटाक्ष विक्षेप आदि गुणांसे मोहित कर देती है तैसे विषय प्रवृत्त विद्वान्को भी देखकर विस्मृति बुद्धिमें दोष सम्पादन करि नाना प्रकारका विक्षेप करतीहै ॥ ३२८ ॥ यथापकृष्टं शैवालं क्षणमात्रंन तिष्ठति । आवृणोति तथा माया प्राज्ञ वापी पराङ्मुखम् ॥३२५ ॥ जैसे जलमेंके शवालको हटादेने पर फिर वह शैवाल क्षणमात्रभी अलग नहीं रहता शीघ्रही जलको आवरण कर देता है तैसे आत्मविचारसे पराङ्मुख विद्वानको भी माया शीघ्रही अपनी आवरण शक्तिसे आवृत कर देती है ॥ ३२५॥ . लक्ष्यच्युतं चेयदि चित्तमीषदहिर्मुखं सन्निपतेत्ततस्ततः।प्रमादतः प्रत्युत केलिकन्दुकः सोपानपङ्क्तो पतितो यथा यथा ॥ ३२६॥ जैसे खेलमें हाथसे छूटाहुआ कंदुक सोपानपंक्तिपर नीचेको गिरता जाता है तैसे यदि ब्रह्मतत्त्वमें लगाहुआ चित्त थोडाकालभी उस लक्ष्यसे बहिर्मुख हुआ तो नीचेहीको दांडता है ॥ ३२६ ॥
SR No.002468
Book TitleVivek Chudamani Bhasha Tika Samet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Sharma
PublisherChandrashekhar Sharma
Publication Year
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, G000, & G999
File Size12 MB
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