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विवेकचूडामणिः ।
चिदात्मनि सदानन्दे देहारूढा महंधियम् । विवेश्य लिङ्गमुत्सृज्य केवलो भव सर्वदा ॥ २९१ ॥ देहमें जो अहंबुद्धि फैल रही है सो सदा आनन्दरूप चिदात्मामें निवेश कर प्रमाण आदिको छोडकर केवल चैतन्यरूपसे सदा स्थिर रहो ॥ २९९ ॥
यत्रैष जगदाभासो दर्पणान्तः पुरं यथा । तद्ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा कृतकृत्यो भविष्यति ॥ २९२ ॥ जैसे दर्पण भीतर पुरग्रामका प्रतिबिम्ब दीखता है तैसे जिस जगत्का आभास हो रहा है वह ब्रह्म मैं हूँ ऐसा अपने को जाननेसे कृतकृत्य होंगे ॥ २९२ ॥ यत्सत्यभूतं निजरूपमाद्यं चिदद्रयानन्दमरूपमक्रियम् । तदेत्य मिथ्या पुरुत्सृजेत शैलूषवद्वेषमुपात्तमात्मनः ॥ २९३ ॥
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सत्यभूत जो चैतन्य अद्वयानन्द रूपक्रियासे रहित आद्य आत्मरूप है उसरूपको प्राप्त होकर कृत्रिमनटके रूपके समान मिथ्याभूत इस शरीरको त्याग करो ॥ २९३ ॥
सर्वात्मना दृश्यमिदं मृषैव नैवाहमर्थः क्षणिकत्वदर्शनात् । जानाम्यहं सर्वमिति प्रतीतिः कुतोऽहमादेः क्षणिकस्य सिद्धयेत् ॥ २९४ ॥ सम्पूर्ण यह दृश्य जगत् मिथ्या है और अहंपदका अर्थ देह आदि स्थूल जगत् नहीं है क्योंकि यह सब क्षणिक दीखता है कदाचित् कहो कि क्षणिक दृश्यमान जगत् अहं पदका अर्थ है तो मैं सब जान - ताहूं ऐसी प्रतीतिकी सिद्धि क्षणिक अहमादिको कैसे होगी ॥ २९४ ॥ अहंपदार्थस्त्वहमादिसाक्षी नित्यं सुषुप्तावपि