________________
भाषाटीकासमेतः। . (७९) भावदर्शनात् । ब्रूते ह्यजो नित्य इति श्रुतिः स्वयं तत्प्रत्यगात्मा सदसद्विलक्षणः ॥२९५ ॥
अहंकार आदिका साक्षी व नित्य जो सुषुप्ति कालमेंभी वर्तमान रहता है वही सत असतसे विलक्षण सर्वव्यापी आत्मा अहंपदका अर्थ है क्योंकि "अजो नित्यः शाश्वतः” इत्यादि साक्षात् श्रुति भी स्पष्ट कहती हैं ॥ २९५ ॥ विकारिणां सर्वविकारवेत्ता नित्याविकारो भवितुं समर्हति । मनोरथस्वप्नसुषुप्तिषु स्फुटं पुनः पुनदृष्टमसत्त्वमेतयोः॥२९६ ॥ .
अहंकार आदि जितने विकारी हैं उनके विकारके ज्ञाता ईश्वर सदा विकारसे रहित हैं मनोरथ और स्वम सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओंमें स्पष्ट वारंवार विकारियोंकी असत्ताही देखी जाती है ॥ २९६ ॥
अतोऽभिमानं त्यज मांसपिण्डे पिण्डाभिमानिन्यपि बुद्धिकल्पिते। कालत्रयाबाध्यमखण्डबोधं ज्ञात्वा स्वमात्मानमुपैहि शान्तिम् ॥ २९७ ॥ इसलिये बुद्धिकल्पित पिण्डाभिमानी मांसपिण्ड शरीरके अभिमानको त्याग करो और भूत भविष्य वर्तमान इन तीनों कालमें सदा वर्तमान भेदरहित चैतन्य आत्मा अपनेको जानकर शान्तिको प्राप्त हो जावो ॥ २९७ ॥
त्यजाभिमानं कुलगोत्रनामरूपाश्रमेष्वाशवाश्रितेषु । लिङ्गस्य धर्मानपि कर्तृतादीस्त्यक्त्वा भवाखण्डसुखस्वरूपः ॥ २९८ ॥ आर्द्र शवरूप शरीरका आश्रित जो कुलनाम गोत्ररूप आश्रम है इन सबके अभिमानको त्यागकरो और सप्तदश अवयवका जो लिंग