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विवेकचूडामणिः ।
नाहं जीवः परं ब्रह्मेत्येतद्व्यावृत्तिपूर्वकम् । वासनावेगतः प्राप्तः स्वाध्यासापनयं कुरु ॥ २८१॥ मैं जीव नहीं हूं मैं साक्षात् परब्रह्म हूं ऐसा परब्रह्ममें जीवभावकों निषेध कर वासनावेग से प्राप्त जो आत्मामें जीवका अध्यास है उसको दूर करो ॥ २८९ ॥
श्रुत्या युक्त्या स्वानुभूत्या ज्ञात्वा सावत्म्यमात्मनः । क्वचिदाभासतः प्राप्तस्वाध्यासापनयं कुरु ॥ २८२॥
श्रुतियोंसे और युक्तियों से अपने अनुभव से अपनेको सर्वस्वरूप समझके मिथ्या ज्ञानसे प्राप्त जो आत्मामें जगत्का अध्यास उसको त्याग करो ॥ २८२ ॥
अनादानविसर्गाभ्यामीपन्नास्ति किया मुनेः । तदेकनिष्ठया नित्यं स्वाध्यासापनयं कुरु ॥ २८३ ॥ दूसरेसे द्रव्यादि अपनेको न लेना और दूसरेको देना इन दोनों क्रियासे अतिरिक्त कोई क्रिया मुनिलोगोंके लिये नहीं है इसलिये इन दोनों में से एक क्रिया में सदा निष्ठा कर आत्मामें जो अध्यास है उसे छोडो ॥ २८३ ॥
तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थब्रह्मात्मैकत्वबोधतः । ब्रह्मण्यात्मत्वदाय स्वाध्यासापनयं कुरु ॥ २८४ ॥ तत्त्वमसि आदि महावाक्यसे उत्पन्न जो ब्रह्म और आत्माका एकत्व बोध उस बोधसे ब्रह्ममें आत्मबुद्धि दृढ होनेके लिये आत्मा जगत् अध्यासको त्याग करो ॥ २८४ ॥ देहेऽस्मिन्निःशेषविलयावधिः ।
अहंभावस्य
सावधानेन युक्त्यात्मा स्वाध्यासापनयं कुरु २८५ ॥ इस देह में जो अबुद्धि हो रही है उस अहंभावका जबतक निःशेष